शुक्रवार, 29 जून 2007

नेताजी के साथ कंपस का राउंड

बीए सेकेंड इयर में पहुंचा, तब तक मुझे युनिवर्सिटी के सीनेट हाल के सामने वाले बरगद की हवा लग चुकी थी....जब युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स लीडर्स को देखता, कि उनके पीछे १५-२० लौंडे चिलांडु की तरह घूमते. नेता जी सफेद कुर्ता पहने खसखसी दाड़ी रखे...ऐसे लगते थे जैसे संसद के सत्र में भाग लेने जा रहे हैं. ...वो कंपस का राउंड मारते तो तो उन्हें देखकर सारी लड़कियां खुशर-फुसर करने लगतीं....ये देखकर मैं सोचने लगता कि यार अच्छी भौकाली लाइफ है...कुछ दिन मैंने भी उनके साथ कंपस के राउंड मारे, सोचा कि शायद अपना भी कुछ हो जाय..रोज-रोज लड़कों के साथ सरस्वती घाट जाने में मजा नहीं आता था, क्योंकि वहां जाकर रोज एक ही काम रहता था कपल्स को देखकर फ्रश्टेशन में उनके ऊपर कमेंट्स पास करना..., पर नेताजी भाइयों के साथ घूमने से कोई फायदा नहीं हुआ...लड़कियां जो कभी-कभी बात कर लेती थीं वो कटने लगीं...हां भाई लोंगो से दोस्ती करके ये फायदा जरूर हुआ कि पेपर आउट करवाना, एडमिशन करवाना जैसे काम करवा करके सिगरेट और बियर का खर्च निकाल लेना................continuएड.

गुरुवार, 28 जून 2007

कॉलेज में राजनीति

दिनेश जी........ने स्टूडेंट्स इलेक्शन का जिक्र करके सोते शेर पर कंकड़ मार दिया है....मतलब मुझे भी इलाहाबाद युनिवॆसिटी के इलेक्शन वाले दिन याद दिला दिए हैं....इलाहाबाद में एक यहां की युनिवॆसिटी के अलावा यमुना के किनारे वाले यूईंग क्रिश्चिचयन कॉलेज का भी बड़ा नाम था, खासकर पढ़ाई के मामले में. जब ग्रेजुएशन में एडिमशन लेने जा रहा तो पिताश्री ने समझाया कि बेटे क्रिश्चिचयन कॉलेज में एडिमशन ले लो, पर मैंने उन्हें युनिवॆसिटी में एडिमशन के लिए कंविंस कर लिया......खैर..जब एडिमशन लेने जा रहे थे, तो पापा जी साथ ही थे. जैसे ही काउंटर के पास पहंचे, तो लंबी लाइन लगी थी...उपर से गर्मी भी फाड़ू थी. ..मैं लाइन में लग गया..वह भी पास ही खड़े थे. .तब तक काउंटर पर दो तीन दाड़ी वाले भाई साहब आए और बिना लाइन में लगे ही अपने कैंडीडेट का एडिम॥शन करवा दिया...टु बी कंटीन्यूड

स्वागत के ही साथ विदा की तैयारी

सौरभ जी ने कई बार अनुरोध किया कि कैंपस में कुछ लिखें, हालांकि मुझे लगता है कि शायद कैंपस से जुड़ी मेरी यादों में शायद किसी की खास दिलचस्पी न हो.
बहरहाल, जहां तक मैं पीछे पलटकर देखता हूं तो कैंपस में पहुंचते सबसे पहले जिस बात से मेरा पाला पड़ा वह थी पालिटिक्स... गोरखपुर का वह डिग्री कालेज दरअसल पालिटिक्स की पाठशाला ज्यादा थी. स्वभाव से अंतरमुखी होने के बावजूद हमेशा मेरी दोस्ती वाचाल किस्म के लोगों के होती आई. तो देखते-देखते कुछ इस तरह के दोस्तो से पाला पड़ गया जो दरअसल तकनीकी एजुकेशन हासिल कर रहे थे, मगर डिग्री के लिए वहां एडमीशन ले रखा था. वे स्टूडेंट पालीटिक्स में खासी दिलचस्पी रखते थे, कुछ ने तो बाकायदा इलाहाबाद और बनारस में इसकी जैसे ट्रेनिंग ही ले रखी थी. कुछ ही महीनों बाद चुनाव शुरू हो गए. हमारे साथियों ने एक कैंडीडेट खड़ा कर रखा था.
देखते-देखते कालेज कैंपस का सारा माहौल इलेक्शनमय हो गया. राजनीति का जादू इस कदर हमारे दिमाग पर छाया कि उसके सिवा कुछ और समझ में ही नहीं आता था. नारों से परिसर गूंजने लगे. घर-घर जाकर स्टूडेंट्स को अपने फेवर में तैयार करना और हाथ से पोस्टर तैयार करना. हमारे खिलाफ जो कैंडीडेट था वह बाहुबली था.. यानी धन भी और बल भी. इलेक्शन से तीन दिन पहले उसके चेहरे वाले पोस्टर से कालेज, बगल के गल्सॆ हास्टल की सारी दीवारें पट गईं. यहां तक कि बीच सड़क पर भी पोस्टर चिपका दिए गए थे. उसी दौरान सनी की फिल्म अर्जुन देखी, (वैसे वह पहले ही रिलीज हो चुकी थी) जहां चौगले (अनुपम खेर) के चेहरे वाले पोस्टर सारे शहर में चिपके दिखते हैं, तो लगता था कि हम भी कोई इसी तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बहरहाल हमारे कैंडीडेट को हारना था, वह हार गया. मगर हमारी मेहनत के वोट उसे मिले और राकी के स्टैलोन की तरह वह हारकर भी जीत गया. यह तो था ग्रेजुएशन के पहले साल का किस्सा.... अगले दो साल लंबी बैठकों और बहसों में कटे. मधुर स्मृतियों वाले कैंपस के दिन बाद में शुरू हुए. तब तक हम काफी मैच्योर हो चुके थे और बच्चन के शब्दों में स्वागत के ही साथ विदा की तैयारी होने लगी थी. दोस्ती गहरी होने से पहले ट्रेन की सीटी बज चुकी थी...
कभी मन में ख्याल आता है कि तमाम दोस्त जाने कहां होंगे, कैसे होंगे... क्या कभी खाली वक्त में बीत दिनों को याद करते होंगे..

मेरी तरह.......

दिनेश श्रीनेत

हाँ ये वो ही कवि सचिन हैं

सचिन भाई शुक्रिया, मैंने तो कानपुर में भी कई बार ऐसा करने की कोशिश कि थी, लेकिन आपने मौका ही नही दिया। कभी राजधानी में बैठें तो जम कर सुनूँगा और परहुंगा भी। वैसे आप ब्लोग पढ़ते रहें और लिखते रहें, इसमे आपको मेरी ही नही कैम्पस से जुडे सभी सहयोगियों के पन्ने पढने को मिलेंगे। प्रभात खबर के कुंदन पूछ रहे थें कि ये सचिन वही रांची वाला है क्या। मैंने उन्हें बता दिया कि हाँ ये वो ही कवि सचिन हैं। मेरे कवि सचिन कुछ कवितायेँ पोस्ट कर दें।
सचिन said...
सौरव भाई आप तो ऐसे ना थे । यार ये क्या बात हुई सिर्फ एड देकर चलते बने । कभी डायरी के कुछ पन्ने पढवा भी दो । ये कुछ उसी तरह हैं कि हलवाई कहे कि भाई बहुत बढिया मिठाई बनी हैं, शानदार आइटम हैं और भी तारीफ की जाये और जब सुनने वाले का मुह रसमलाई हो जाये तो दुकान बंद कर दे । अरे भईया पट खोलो और जरा चखाओ कि क्या माल हैं।

मंगलवार, 26 जून 2007

कुछ यादें हमारे साथ

क्लास ८ में था। अचानक मेरे दिमाग मे ना जाने कहॉ से diary लिखने kee बात आयी। मैंने अपनी दाएरी में पुराने गाने और शायरी लिखना शुरू किया। फिर मुझे लगा कि क्यों ना मैं इस diary में लोगों के कोमेंत भी लूं। और फिर ये भी शूरू हो गया। आज ये diary पुरी तरह भर चुकी है, जिसमे केंपस के कई साथियों के कोमेंत भी शामिल हैं। १९९७ में मैं देल्ही आ गया था। नए शहर में तनहाई के दिनों में इस diary ने मेरा जितना साथ निभाया, वो मेरे लिए अनमोल था। आज भी कभी अगर उदास होता हूँ या मन फिर से कैम्पस कि तरफ जता है, तो वो diary पढने बैठ जाता हूँ। उसके एक-एक पन्ने पेर जैसे कहानी लिखी हो, ऐसी कहानी जिसे बार-बार पढना अच्चा लगता है। उसी तरह कैम्पस भी आप सभी को वापस कैम्पस की ज़िन्दगी जीने का एक मौका देता है। यकीं मानिये इस व्यस्त ज़िन्दगी में भी अगर कैम्पस लाइफ के एक पन्ने खोलेंगे तो कई पन्नों कि दास्ताँ खुद-ब-खुद लिखने का मन करेगा। कैम्पस लाइफ है ही ऐसी. आपने गौर किया होगा जब कैम्पस के दोस्त मिलते हैं, तो कैम्पस कि कितनी बातें याद आने लगती हैं। तो कुछ यादें हमारे साथ भी शेएर करें, हम सब ko कैम्पस का मित्र मानते हुए।

बिना लड़कियों ke लाइफ पार्ट-2

हाँ तो मैं कह रह था कि युनिवर्सिटी की लड़कियों के चाल चलन को देखकर मेरे अन्दर के अरविंद ने कहा कि बिडू राहुल और चिन्टू की तरह रहने से कोई घास नही डालने वाला नही है....अब इनके दिन लड़ गए हैं..अब इमेज बदलकर वापस ८० के दशक के विजय (अमिताभ बच्चन ) बन जाओ....लड़कियों से अपनी तरफ से बात मत करो....क्लास में क्रन्तिकारी बाते करो...जिस रस्ते से वो जाती हैं, उसी रस्ते की किसी चाय की दुकान के मेम्बेर्शिप लेकर अपना जयादा समय वही गुजरो .........जैसे ही लडकियां गुज़रे चाय सुडकने के साथ सिगरेट का शुट्टा मारो.......शाम होते ही बियर कि दुकान पर रोज़ हाजरी लगाओ....साथ में उन चिन्टू और बिल्लू टाईप के लड़को को ले जाओ, जो लड़कियों से चिपके रहते हैं ... इससे फायदा ये होगा कि वो क्लास कि लड़कियों के हमारे अन्ग्री यंग मैन के किस्से सुनायेंगे....भाई लोगो अपुन ने इस तरह के ढेरों नुश्खे अज्माये गए पर साला पता नही किस दुर्वाषा ऋषि का श्राप लगा था। बात बन ही नही रही थी। हारकर बजरंग बलि के भक्त बन गए .......और मन को संतोष दिलाया कि हम किसी से कम तो है नही फिर किसी के पीछे क्यों जाये....फिर सोचा पापा का अच्छा बेटा बन जाया जाये..फिर तत्काल ही युनिवर्सिटी के प्रोफसर ॐ प्रकाश मालवीय के घर पर चलने वाली एन्लिश की क्लास ज्वाइन कर ली, पर इस समय तक सिगरेट के धुँए और बियर रुपी कोल्ड ड्रिंक के अच्छे दोस्त बन चुके थे । क्लास ज्वाइन किये हुए कुछ ही दिन हुई थे कि एक लडकी जो बुर्के में थी कि थी...शायद उसका पहला दिन था, उसने मुझसे कहा कि मुझे नोट्स दे दो ...इनता सुनते ही मेरे अन्दर जोर का करंट लगा...फिर धीरे -धीरे हम अच्छे दोस्त हो गए....और हमेशा की तरह जिस तरह से दोस्ती प्यार में बदल जाती वैसा ही हुआ। कुछ समय बाद भाई कि ये हालत हो गयी कि बाकी लड़के मुझसे जलकर कहते साला बिल्कुल चिन्टू टाईप का लड़का है....हमेशा लड़कियों से चिपका रहता है। मैंने सोचा यार बेकार कि इमेज बदला ..........??

अरविंद मिश्रा !!!!!!!!!!!

सोमवार, 25 जून 2007

लडकी बिना लाइफ सूनी -पार्ट -1

अपनी लाइफ graduation के पहले तक बड़ी सूनी-सूनी थी। क्योंकि पहले boys कालेज में पड़ते थे, लड़कियों से दोस्ती करना तो दूर , बात करने पर भी पर सीबीआई कि तरह घरवालों कि नज़र रहती थी . खासकर छोटे भाई की, वोह तो अब्बा जान का पक्का खबरी था। उससे हमेशा मेरी फटती थी। अन्दर कुंठा के शिकार हो रहे थे। जब युनिवर्सिटी पहुचे तो देखा कि खूबसूरत और सेक्सी लडकियां कसी जीन्स पहने लड़को के साथ घूम रही हैं. कुछ लड़के तो उनके साथ घूमना deserve करते थे पर कुछ तो साले सिगरेट पीते और पाजामे से भी ठीली जीन्स पहने चूतिये लग रहे थे। उनको देखकर अन्दर से आवाज़ आती थी कि साला हममें क्या कमी है। पर अगर कमी नही है तो......frastated क्यों....? निष्कर्ष निकला गया कि अब लडकिया सीदे- सादे रहने से पटने वाली नही हैं.....अब हम भी धुएं का छल्ला उदायेंगे ...........................बाकी कल.....
अरविंद मिश्रा

भैंस के ऊपर मैं , मेरे ऊपर बाईक

आज के युवा बाईक ऐसे चलते हैं जैसे हवाई जहाज , उन्हें बाईक भी घर में आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन जब मैं १३ साल का था, तब बाईक एक सपने कि तरह था । जब भी मैं किसी को बाके चलते देखता तो मन करता कि मैं भी पंख लगा कर बाईक पर उरुं और मस्ती करूं । मेरे घर में स्कूटर था, जिसे मैं गाहे-बघाहे निकल लेटा और अपने दोस्तों को कहता कि उसे धकेलो , मुझे चलाना नहीं आता था । मेरे मामा के पास बाईक था, एक दिन वी अपने दोस्त के साथ आये थे, मामा खाना खाने लगे तो मैं उनके दोस्त को बोला कि मुझे बाईक चलाना सिखा दें । उन्होने मुझे बाईक के बारे में समझाया और मुझे बाईक दे कर खुद पिछे बैठ गए धीरे-धीरे मैं आगे बढ़ा । कुछ दूर तक मैंने ठीक बाईक चलाया, फिर सामने एक ट्रक आ रहा था , उसे देखते ही मैंने बाईक को साइड किया बगल में एक भैंस खरी थी , हम दोनो भैस के ऊपर गिरे । हम दोनो के भार से भैंस गिर गयी, भैस के ऊपर मैं और मेरे ऊपर भैंस के ऊपर मैं , मेरे ऊपर बाईक मजेदार लग रही थी, कुछ लोगो ने हमे उठाया। मुझे कोई खास चोट नही आयी थी लेकिन मामा के दोस्त को काफी चोट आयी, घर आकार मैंने किसी को नही बताया, उस दिन के बाद मैंने बाईक चलाना सिख लिया।

रविवार, 24 जून 2007

वो कालेज की मस्ती

कैम्पस यानी जिंदगी के कुछ aese पल जिसे मेरी समझ से सबने खूब जिया होगा। फिर हम भी इस मौज मस्ती भरे दिन mein कैसे पीछे रह सकते थे. शुरुआत से ही मैं थोडा शेतान टाईप की थी. बचपन मे school से लेकर बडे होने पर कालेज तक अपनी शेतानियो का ख़ूब परचम lahraayaa है। भगवान् कि दया से सहेलिया भी कुछ इसी तरह मिली। हमने क्लास ८ से ही skool बंक करना शुरू कर दिया था। पर उस समय हम कही और नही बल्कि अपनी सहेली के ही घर जा कर पूरा दिन ऎन्जॉय करते थे। और जब कालेज गए तो वहा महेने मे एक बार फिल्म देखना, चुपके से किसी दोस्त के जन्मदिन par किसी रेस्तुरांत मे जाना . एक तरह से जिंदगी का फुल मजा हमने उन दिनों लिया। कालेज मे मेरे साथ एक bhyankar vakayaa हुआ था क्या था vo..................... chaliye फिर कभी।
Pushpa शर्मा

शनिवार, 23 जून 2007

बच्चों के कुंदन भैया

एक हैं हमारे कुंदन जीं. मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं. प्रभात खबर में इनका साथ मिला, जो आज तक है. फिहाल वोह वहाँ बच्चों का पन्ना और फिल्म का पन्ना देख रहे हैं. हालांकि दोनो बिलकूल अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन कुंदन एक अच्छे मेनेजर भी हैं. बचेन उन्हें कुंदन भैया जे नाम से बुलाते हैं. उनकी कैम्पस की यादें।
सौरभ, अनेक ब्लॉग में जाता हूँ और कभी-कभी पढता भी हूँ, लेकिन तुम्हारा ब्लॉग कुछ हट कर लगा, क्योंकि इसमे जाने से काम्पुस के बेताक्लुफ दिनों कि सुनहरी याद या गयी. सच जीवन का सबसे रोमांचक और सुनहरा दिन कालेज के ही था. ढेरों सुनहरी यादें काम्पुस से जूरी है. एक रोमांचक वाकिये तुम्हे बताता हूँ. उस समय मैं बीआस्सी पार्ट-१ में था. हमारे कालेज में जूलोजी के कम थे, इस्लिया दो पग स्चोलुर को भेजा गया था. उस दिन मोर्निंग में पहला क्लास होने के बाद प्रक्टिकल था. क्लास छोर कर मैं पास में ही स्थित सुजाता सिनेमा हॉल चला गया (मुझे फिल्म देखने का बहुत शौक था, शायद उसी कारन आज फिल्मो पर लिखता हूँ) वहाँ मैं लाईंन में खरा हुआ, कुछ देर बाद मैंने देखा कि मेरे नए लक्चेर थीं. लड़के आगे खरे हैं. उन्हें वहाँ देख कर मैं सन् रह गया. उन्हें देख कर लगा श्हयद उनहोंने मुझे देख लिया हैं. उन्हें दीसे का टिकट लेते देख कर मैंने बल्कोनी का टिकट लिया, किसी तरह मैंने फिल्म देखी और सिनेमा ख़त्म होने के १० मिनट पहले ही मैं हॉल से बहार निकलने लगा, जैसे ही कॉरिडोर मैं पहुँचा सामने से जल्दी-जल्दी आते lएअक्चार भी दिखाई दिए, हम दोनो कि नजरें मिली, मैंने अपनी नजर नीचे kee और जल्दी से बहार निकल गया. दुसरे दिन क्लास में मुझे संकोच लग रह था, लेकिन सिर पहले कि तरह ही मुझे मुस्कुरा कर देखा. आज जब भी सुजाता हॉल जाता हूँ तो अनायास मुस्कुरा देता हूँ.आगे और बातें होंगी.
कुंदन कुमार चौधरी

सौरभ सुमन जी, कैंपस में कहां हैं जवानी के जोरदार किस्से???

अपने मित्र हैं सौरभ सुमन। दिल्ली से कानपुर और अब लखनऊ में हैं। बेहद शर्मीले, सजीले और नजाकत-नफासत पसंद। मुझे वो अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें एक अच्छे नागरिक के सभी गुण हैं। उनकी विनम्रता औरों की तरह कतई नकली नहीं है, पूरी तरह प्राकृतिक है। उनके चाहने के पीछे शायद एक ग्रंथि यही है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और जो भी हैं उन्हें संभाल कर रखने का दायित्व हम सभी पर है। खैर, कहना कुछ चाह रहा था, कह कुछ और रहा हूं। मुझे पता है, तारीफ सुन के सौरभ के दिमाग खराब नहीं होते।
तो मैं कह रहा था, सौरभ भाई ने एक ब्लाग बनाया हुआ है कैंपस। उसका लिंक मैंने भड़ास पर दे रखा है। कैंपस की दुकान चलाने के लिए सौरभ जी भरपूर कोशिश कर रहे हैं। हां, एक बात और, सौरभ जी कुछ किशन-कन्हैया की तरह हैं, उन्हें लड़कियां बेहद चाहती हैं और वो लड़कियों को। हालांकि ये गुण अपन सब में भी हैं लेकिन अपन लोग हैं बेहद आक्रामक। जल्दी दोस्ती होती है और उससे ही जल्दी टूट भी जाती है। खैर, बात कर रहा था सौरभ जी की। तो, सौरभ जी का कैंपस चल निकला है। उसमें कई लोग अपनी कैंपस की यादें निकाल रहे हैं। कुछ निकालने का नाटक कर रहे हैं और कुछ जबरन निकालने की कोशिश कर रहे हैं। भई, इतना प्रायोजित लेखन नहीं चलेगा। कैंपस के दिनों में हर आदमी ढेर सारा हरामीपना करता है और यह हरामीपना ही जवानी जिंदाबाद के नारे को बुलंद करती है। अगर इन हरामीपनों का जिक्र नहीं किया जाए तो कैसा कैंपस? मेरा मकसद कैंपस की आलोचना करना नहीं बल्कि उसका वास्तविक विजन बताना है। हो सकता हूं मैं गलत हूं क्योंकि दरअसल मैं अपने तरीके से सोच रहा हूं, सौरभ जी की सोच कुछ और होगी। लेकिन मुझे लगता है कि जब मैं कैंपस में लिखूंगा तो वो सारे कच्चे चिट्ठे खोलूंगा जिसे शायद कैंपस के दिनों में बिलकुल नहीं खोल सकता था। उसमें मास्टर को मारने से लेकर और ट्रेन में बिना टिकट पकड़े जाने पर उठक-बैठक करने तक का जिक्र होगा। इसी तरह पड़ोस की शादीशुदा लड़की पटाने के लिए कई महीने बर्बाद करने और फिर हाथ में कुछ न आने की भयंकर निराशा का भी जिक्र करूंगा। किस तरह नशे का गिरफ्त में आया, कैसे राजनीति में पहुंचा, कैसे थिएटर में शामिल हुआ, कैसे सेक्स को लेकर कुंठित होता गया, किस तरह प्रेम और यर्थाथ के बीच भयंकर गैप ने आदर्शवादी मन को कठोर बनाया.....

डार्क एरियाज के राज खोलने जरूरी हैं
भई, लिखना-लिखवाना है तो असल बातों पर ले आओ सबको क्योंकि आदमी बहुत कमीना टाइप प्राणी होता है, वो हमेशा अपनी मूर्ति पूजा कराना चाहता है जबकि सबके जीवन में इतने डार्क एरियाज होते हैं कि उसके राज जाहिर करने में सबकी फटती रहती है। हालांकि ऐसा लगता है कि राज जाहिर होने पर भयंकर हो जाएगा लेकिन हर आदमी के जीवन में ऐसे ही राज हैं और किसी के पास फुर्सत नहीं कि वो आपके राज को लेकर बैठ जाए और आपको फांसी पर लटका दे। मुझे याद है, जब पहली बार मुझे अपने जवान होने का अनुभव हुआ था, उस समय मैं हाई स्कूल में था, तब मैं कई दिन बेहद सदमें में रहा। किसी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती थी। लगता था धरती फट जाए और मैं समा जाऊं। यह क्या हो रहा है। सोचने समझने की हिम्मत जवाब दे गई थी। मुझे लगता रहा, यह सिर्फ मेरे साथ हुआ। पर बाद में जब थोड़ा रीयलिस्टिक हुआ तो पता चला, अबे सभी लोग थोड़ा इधर-उधर कम-ज्यादा कर ऐसा ही अनुभव करते हैं। ऐसा ही लड़कियों के साथ भी होता है। रियाज भाई के जीवन के डार्क एरियाज तो ऐसे-ऐसे हैं कि जब वो सुनाने लगेंगे तो कई लोग बेहोश हो जाएंगे। खुदा उन्हें चुप ही रखे। इसी तरह अपने सौरभ शर्मा मेरठ वाले ने बचपन से ज्योंही जवानी में कदम रखा तो रजिया गुंडों के जाल में फंस गई। वो लंबा किस्सा है जिसे सौरभ शर्मा जी कभी-कभी कान में फूंक मार कर सुनाते हैं और कहते हैं कि भाई साहब किसी से कहना नहीं। ...तो ऐसे ही ढेर सारे किस्से हैं जिसे हम किसी से कहना नहीं चाहते लेकिन उन्हें कह-लिख देने पर कहीं कुछ नहीं होता क्योंकि इतनी फास्ट दुनिया में लोग आपके किस्से को लेकर थोड़े ही बैठे रहेंगे।

बाकी बातें बाद में...कैंपस में इंतजार करूंगा किसी मास्टर को मारे जाने की घटना का, किसी लड़की को पटाने के लाइव चित्रण का, किसी की किताब चुराने, किसी की रैगिंग लेने की लाइव रिपोर्टिंग का...
सौरभ जी....भड़ास निकालिए, कैंपस में ही सही, लेकिन ओरीजनल अंदाज में। गुडी-गुडी लिखवाएंगे तो सब यूं ही थैंक्यू थैंक्यू लिखकर चले जाएंगे।

किसी को कुछ बुरा लगा हो तो वो एक बार जोर से बोले...जय भड़ास

यशवंत

यादे याद आती है

सॉरी सौरभ जी बहुत देर लगी आपके ब्लोग पर आने में
कम्पुस के दिनों को याद करते ही मन महकने लगता है। ऍक एक कर हर बात याद
आती है। सावन कि पहली बूंदो के तन पर गिरने का सा एहसास था वो। ढ़ेर सरे सपनो कि
दुनिया, ऐसा लगता था कि पंख लग गए हो। वो पहली बार क्लास बुंक करके मोवी देखने जाना।
हाल मे ख़ूब हल्ला मचाना। हमारा गिर्ल्स कोलेज था, अगर कोई लड़का आ गया तो उसकी
खैर नही। एक मजेदार वाकया बताती हूँ। हमारा १८ लडकियो का ग्रुप था जो गैंग कहा jata था।
एक बार एक लड़के के पीछे गैंग कि ६ लडकिया दीवानी थी। फिर दिन तय हो गए किस दिन कौन
उसके बारे मे बात करेगा। बहुत मजा आता था। उस बेचारे लड़के को ये सब तब पता चला जब
उसकी शादी हुई। वो इन दिनों लेफिनेंत कर्नल है।
ऐसी बहुत यादे है। बाक़ी फिर कभी।
शुभकामनाये
pratibha

बुधवार, 20 जून 2007

नई जीन्स और नई गिटार

अमूमन मैं पीछे मुड़कर देखना पसंद नहीं करता फिर भी सौरव से वादा किया था सो आप लोगों को अपने कैंपस के दिनों के बारे मैं बताता हूँ । मेरे कैंपस के दिन यूँ कोई बहुत खास नहीं थे । इनमें कुछ दोस्त थे चंद सिगरेटें थीं और था एक बेहद आवारा मिजाज़ दिल । उन दिनों मेरे दिन की शुरुआत कोई 11-12 बजे होती थी । मैं रूम पर अकेला होता था चाय पीकर कोलेज की और खरामा खरामा बढता । रास्ते मैं कोई मिल गया तो गंतव्य बदल भी जाता था । सबसे पहले कैंटीन पहुँचता था और कोई जाना पहचाना चेहरा दिखाई दे गया तो उसी टेबल को अपना निशाना बनाता । यह वो दौर था जब मैं एक दिन मैं कम से कम 2 पैकेट सिगरेट पी जाता था । दोस्तो से गप्पबाजी और विवि की राजनीति कई दाव पेंच तय करते हुये 7-8 बज जाते थे । इसके बाद भारत भवन या रवींद्र भवन की और रुख करते और भोपाल के साहित्यिक सांस्कृतिक माहौल मैं रमे रहते थे । दरअसल उन दिनों यही वह दुनिया थी जो हम लोगों को राह दिखाती थी । विवि के सांस्कृतिक माहौल को बनाए रखने की ताकत भी यहीं से मिलती थी । हबीब तनवीर, राजेश जोशी, विजय बहादुर सिंह, कमला प्रसाद, नवल शुक्ल, बनाफर चंद्र, इरफान सौरव से लेकर रामशरण जोशी तक फैले इस माहौल में हमने अपने रास्ते अख्तियार किये और अपनी पूरी लापरवाही के साथ कैंपस में पढ़ाई की । आज इतना ही ।
आगे पढें : नाटकों का संसार - पूरी हकीकत पूरा फ़साना

मंगलवार, 19 जून 2007

कैसे थें सचिन भाई कैम्पस के दिनों में

सचिन भाई, यही तो आपकी खास बात है। इसमें दो राइ नही कि आप अच्चा लिखते हैं। ये मैं नही, आपको पढने वाला हेर कोई कहेगा। लेकिन भाई कुछ कैम्पस से जुडी यादें तो बतायें. कैम्पस के दिनों में भी क्या आज वाला सचिन ही थें ? जानने कि बड़ी उत्सुकता है।
सचिन said...
सौरव भाई कैंपस की यादों को हिलोरने के लिए धन्यवाद । दरअसल बहुत साफ कहूं तो मुझे कभी आप पर विश्वास नहीं हुआ । कारण यह है कि आप मेरे बारे में बहुत बड़ा चडाकर बोलते हैं जिसका में हक़दार ही नहीं मुझे आप वो बना देते हैं । मैंने बहुत सकुचते हुये कवितायेँ पोस्ट की थी नई इबारतें पर । दरअसल कवितायेँ मेरी निजी दिक्कतों का फलसफा ही ज्यादा हैं । इसमें आपके उस सवाल का भी जवाब निहित है कि भडास और नई इबारतें पर में कैसे अलग अलग हूँ । मुझे लगता है कि भीतर से हर आदमी के अन्दर नई इबारतें होतीं है बिल्कुल साफ सफ्फाक और निश्छल और बाहर से हर आदमी दिखना चाहता है एक भडासी । और बातें किसी पोस्ट पर होंगी । फिलहाल अलविदा

रविवार, 17 जून 2007

वो छोटी-छोटी खुशियाँ

अरविंद जी को धन्यवाद। समय-समय पर इन्होने जिस तरह अपने कैम्पस कि यादों को हमारे साथ शेयर किया, वह वाकई मजेदार है। हालांकि मुझे कभी कैम्पस में इस तरह करने का मौका नही मिला। हाँ, जो मुझे कैम्पस में करने का मौका नही मिला, वो सब मैंने समय से पहले ही स्कूल में कर लिया था। आज भी स्कूल के कई दोस्तों से बात होती रहती है। अब तो ज़्यादातर कि शादी भी हो गयी है और कुछ के तो बच्चे भी हैं। अक्सर जब भी उनसे बातें होती हैं तो स्कूल के दिनों को याद कर खुश हो लेटा हूँ। खास बात ये कि पता ही नही चलता कि स्कूल का ज़माना बीते १३ साल हो गएँ हैं। वैसे इसका ये मतलब कतई नही है कि आज जहाँ हूँ खुश नही हूँ। बहुत खुश हूँ, लेकिन ये ऐसी ख़ुशी है, कि खुश होने से पहले भी सोचना पड़ता है। हिसाब लगता हूँ, विश्लेषण कर्ता हूँ कि क्या यहाँ खुश होना सही है। छोटी-छोटी खुशियों को सहेजना और कभी-कभी बिना किसी वजह के कुछ सोचकर ही खुश हो जाना अब भूल गया हूँ। इसलिये कैम्पस बहुत याद आता है। कई लोगों से मैंने कैम्पस कि यादों को यहाँ लिखने को कहा, लेकिन...खैर... जल्दी-जल्दी कैम्पस से जुडी ढ़ेर साड़ी यादों को इसमें जोरिये और इसे एक शानदार मंच बनाइये। दिनेश जी का भी सुक्रिया, जिन्हे मैं देखता हूँ कि वो कितना व्यस्त रहते हैं, इसके बावजूद उन्होनो कुछ लिखा। मैं चाहूँगा कि वो आगे भी लिखते रहें। प्रतिभा जी से मैं थोडा नाराज़ हूँ, क्योंकि मेरे बार-बार कहने पेर भी इन्होने सिर्फ आश्वासन ही दिया। यशवंत जी आपकी बात मानते हुए मैंने अपना दूसरा ब्लोग डिलीट कर दिया है। कभी भडास निकलने से फुर्सत मिले तो कैम्पस के दिनों को भी याद कर लीजियेगा।

शुक्रवार, 15 जून 2007

रैगिंग के जरिये bhadas

इस मंच पर आने के बाद मैं अक्सर अपने कालेज वाले दिनों में वापस लौट जाता हूँ। एक बार कि बात है जब मैं इलाहबाद युनिवर्सिटी में फ़ाइनल सेमेस्टर में पंहुचा था। तो उस दोरान फर्स्ट येअर वाले नए लड़के दाखिले के लिए कम्पुस के चक्कर काट रहे थे, हम तीन चार दोस्त इंग्लिश विभाग के पास खडे सिगरेट का सुत्ता मार रहे थे। उन् नए मुर्गों को देखकर हमारे मॅन में उन्हें हलाल करने चुलबुली जागी। उन्हें बुलाकर मैंने एक लड़के से पूछा कि पांडव के बाप का नाम पांडु तो गान्दाव के बाप का नाम क्या होगा । उसने तपाक से कहा कि गांदु । फिर क्या था। उसकी लंबी खिंचाई हुई। उससे रंगिंग के नाम पर उन् लड़कियों को फूल दिलवाए गए और आई लव यू बोल्वाया गया, जो हमे कभी घास नही डालती थी। जिनसे हमारी, डेटिंग सिर्फ सपनों में होती थी । यानी रंगिंग के नाम पर हम अपनी भडास निकल लेते थे।

अरविंद मिश्रा

गुरुवार, 14 जून 2007

भाई सौरभ,
वैसे तो आमने- सामने आपसे ज्यादा बातें होती नहीं, उम्मीद है कि ब्लोग पर बतकही चलती रहेगी। आपने इसके बहाने पुराने दिनों की याद ताजा कर दी। हालांकि मैं तो कैम्पस का टाइम लगभग भूल ही चूका था, पर यहाँ देखा तो काफी लोग यहाँ पर पुराने दिनों की यादों को सहेज रहे हैं। कैम्पस के बाक़ी मित्रों से भी अनुरोध है कि मुझसे अपना संवाद बनाए रखें।
दिनेश श्रीनेत

बुधवार, 13 जून 2007

बच्चे थे तो मौज थी

सौरभ जी का नया मंच कैम्पस, एक सराहनीय प्रयास है। जहा हम अपने भूलें बिसरे दिनों को याद कर सकते हैं। वोह दिन जो अब हमे तब याद आते हैं जब हम किसी स्कूली बस या रिक्से को देखते हैं। हम सालों पहले अपने बचपन में लौटते हैं, तो हम ऊपर वाले को ख़ूब गलियां देते हैं, कि क्यों मुझे बड़ा करके इतनी जिमेदारिया दे दी। अरे बच्चे होते तो कम से कम ऑफिस जाने कि टेंशन ना रहती, बॉस कि घुड़की ना सहनी पड़ती और जिन लड़कियों से हमे बाते करते देख लोग कहते है कि गुरू जिस लडकी पर तुम लईनमार रहे हो वोह बॉस का माल है। कम से कम ऐसा दिल्तोदू ट्रेलर तो ना सुनने को मिलता।

स्कूल के दिन ज्यादा याद आते हैं

यशवंत जी आपका बहुत-बहुत स्वागत है मेरे ब्लोग पर। मेरा ही नही यह आपका भी ब्लोग है। जब भी मैं अपना खुद का ब्लोग खोलता हूँ , तो इसमे बहुत ज्यादा संस्मरण नही होने के बावजूद मैं वापस अपने कैम्पस लाइफ में चला जाता हूँ। स्कूल के दिन मुझे ज्यादा याद आते हैं। में और मेरा दोस्त दीपक दोनो ने अपना स्कूल लाइफ ख़ूब ऎन्जॉय किया था। दोनो को चार्टर्ड एकाउंटेंट बन्ने का शौक़ था, हाँ शौक़ ही कहेंगे उसे, क्योंकि उसके लिए प्रयाश नाममात्र भी नही था। घर के पास फील्ड में बैठकर भविष्य पेर चर्चा किया कर्ता था। अब जब चिन्तन इतना गम्भीर हो तो बिना सिगेरत के दिमाग कैसे चलता, सो दोनो लोग पैसे मिलाकर एक सिगरेट खरीद्तें और उसे सुलगाकर चिन्तन में मग्न हो जाते थें । बात हमारे भविष्य से शुरू होती और देश दुनिया के भविष्य की चर्चा करते हुए फिल्म तक पहुच जाती। जब भूख लगती तो याद आता कि अब घर चलना चाहिऐ। जाने कितनी प्लानिंग करते थें हम। आज दीपक रांची में है। और हाँ जल्द ही उसकी शादी भी होने जा रही है।

सोमवार, 11 जून 2007

भाई, सौरभ जी, मैं आ गया, लिखूं क्या???

कैंपस का मेंबर बन गया। इसमें फुरसत से योगदान करूंगा। फिलहाल तो भड़ास पर ध्यान केंद्रित है। जब उसमें लोग इतना भड़ास उगल देंगे कि उसे मजबूरन बंद करना पड़े तो उसके बाद आप के ब्लाग पर सक्रिय रूप से हिस्सेदारी करूंगा। वैसे मुझे पता है कि भड़ास का भविष्य एक महीने से ज्यादा नहीं है। जिस तरह के पोस्ट आ रहे हैं उससे लगता है कि यह ज्यादा दिन चलेगा नहीं। फिर भी, एक नया अनुभव और संस्मरण और तकनीकी दक्षता का अनुभव तो मिलेगा ही। यही पूंजी आगे काम आएगी। आप कृपया अपने ब्लाग पर रेगुलर या वीकली बेसिस पर जरूर लिखा करें। और कोशिश करें कि दो की जगह एक ब्लाग चलाएं। ज्यादा ब्लाग बनाने पर उनके डेड होने का खतरा रहता है।
बाकी बाद में
यशवंत

सोमवार, 4 जून 2007

क्यों नही आतें वो दिन फिर से। जब हमें कैरियर कि चिन्ता नही थी, जब दोस्तो का साथ सबसे अच्चा लगता था। तब रिश्तों में कोई बनावटीपन नही था। हेर रिश्तों को हम दिल से जीतें थें। और हाँ हमारे वो दोस्त अब कहाँ हैं, जिनसे साथ घंटों काम्पुस में बातें करते हुए हम कल्पनाओं कि असीमित उड़ान उदा करते थें। वास्तिविक्ताओं से दूर असीमित आकाश में सपनों के पंख लगाकर उड़ना कितना अच्चा लगता था। दिल से जीते वो रिश्ते आज भी याद आते हैं। चलें एक बार फिर से उसी दुनिया में लौटकर। ज़िन्दगी को एक बार फिर से जीं कर।