सोमवार, 30 जुलाई 2007

सौरभ सुधर जाओ

मियां अगर तुमने अपने बारे में तमाम सूचनाएँ आज रात तक सार्वजानिक नहीं की तो में भडास पर सब उगल दूंगा। सब सूचनाएँ यानी आजकल कहॉ हो क्या कर रहे हो किसके साथ रह रहे हो क्यों रह रहे हो। सबसे जरूरी बात जीवित हो या नहीं अगर नहीं हो तो किसने क्या कब क्यों कहॉ कितना कर दिया
सचिन

शुक्रवार, 20 जुलाई 2007

देश में चाय कल्चर

कभी-कभी मैं सोचता हूं िक अगर गोरे फिरंगी इस देश में चाय कल्चर लेकर नहीं आते तो क्या होता. ? कितने बिचारे सुबह बिना इसका सुड़क्का मारे अपना गोदाम नहीं खाली कर पाते हैं....अगर चाय ने सबसे ज्यादा किसी एक खास कौम पर अपना शिकार बनाया तो वह है पत्रकार बिरादरी....इस जाति के साथ चाय का वही रिलेशन है जैसे करन जौहर और शाहरुख खान की दोस्ती....करन अगर अपनी किसी भी फिल्म का स्टैबलिशंग शॉट भी सोचते हैं तो उनके दिमाग में शाहरुख खान आइडिया आने के पहले ही घुसे ब.ब.बबैठे रहते हैं.....तो पत्रकार महोदय सुबह अगर चाय का सुड़क्का न मारें तो मीटिंग में उनको स्टोरी आईडिया ही सूझे....और आइडिए को तब और पंच िमलता है जब विल्स नेवी कट का धुआं भी घुटक लेते हैं. .....ये चाय और सिगरेट धीरे-धीरे इनकी जिंदगी में इतनी खास हो जाती है कि जिंदगी के सारे टेंशन ये इसी के साथ में सेयर करते हैं. ......अगर कैरियर के शुरुआती दौर में देखा जाय तो ऑफिस की जिस लड़की को देखकर इनके दिल का बगीचा हरा भरा रहता है, अगर वो किसी दूसरे से ज्यादा स्टोरी आइडिया डिस्कस करती है तो भाई को एड्स के रोगी से ज्यादा तकलीफ होती है. ...भाई जाता है टेंशन में लगातार चाय के साथ कई धुएं की डंडी सुलगा डालता है....इसी तरह आगे नाना प्रकार की परििस्थतियां आती हैं पर हर टेंशन का मुकाबला भाई सिगरेट और चाय रूपी मिसाइल के साथ करता है. ....सारे जमाने पर पत्रकािरता की रौब झाड़ने वाले भाई साब चाय की ठेलिया लगाने वाले वाले गणेशी भैया से औकात में ही बात करते हैं. ..जानते हैं कि इनसे पंगा लिया तो अदरक और इलाइची वाली चाय की जगह गोमती नदी का गरम पानी ही पीना पड़ेगा. ......अरविंद मिस्रा..............

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

एक मौका कैम्पस को याद करने का

बडे दिनों बाद काम से थोड़ी-सी फुर्सत के बाद आज फिर कैम्पस कि याद आ गयी। सोचा स्क्रीन पेर बैठ कर कुछ लिखते हुए याद करूं। याद ऐसे आयी कि कुछ दिनों पहले जब मैं छुट्टी पर घर गया था, तो कई मित्रों से मुलाक़ात हो गयी। कैम्पस के वो मित्र आज कितने बदले बदले से नज़र आ रहे थें। कैम्पस कि चंचलता और शरारतों ने अब जिम्मेवारी और गंभीरता का स्थान ले लिया है। मैंने अपने मित्र जे से कहा याद है तुम्हे तुम कैसे केंपस में शरारतें किया करते थे, कहॉ गयी वो शरारतें? चलो कुछ देर के लिए वही जे बन जाओ। हमलोग लेक के किनारे बैठकर उन दिनों को याद कर रहे थें, जब हम एक सिगरेट पीन के लिए साईकिल से ४ किलोमीटर कि दूरी तय कर यहाँ आते थें। तब शायद इस लेक के जल में भी शरारत थी, आज यह भी बेहद शांत पड़ा है, बिल्कुल हमारे बहरी मन कि तरह। हाँ, बाहरी मन ही, क्योंकि अंतर्मन में तो आज भी वही कैम्पस वाली चपलता है, जिसे हम ना चाहते हुए भी छिपाकर रखते हैं। लेकिन आज जब जे से मुलाक़ात हुई तो हमने कैम्पस के दिनों को फिर से जिया। कैसे और क्या बात हुई, अगले पोस्ट में।

गुरुवार, 5 जुलाई 2007

ब्रेक के बाद

कैंपस में एक लंबे ब्रेक के बाद कुछ लिखने की फुरसत मिली है, मगर पता नहीं क्यों मुझे कैंपस के लिए लिखना काफी अच्छा लगा. यह मुझे नास्टेल्जिक होने का मौका तो देता ही है, अपने पुराने दिनों को दोबारा देखने और कई बीती बातों से सबक लेने का भी जैसे मौका देता है.
... पिछले दिनों कैंपस चर्चा पालीटिक्स तक पहुंच कर ठहर गई थी. डिग्री कालेज से निकलकर यूनीवर्सिटी पहुंचने के बीच का संक्रमण काल कुछ इस तरह का रहा कि दो नितांत विपरीत विचारधारा वाले लोगों के बीच उनको जानने, सुनने और समझने का मौका मिला. इसके अलावा आगे के चार-पांच साल थिएटर से जुड़े लोगों के बीच बीते. वह काफी अजब-गजब सा एक्सपीरिएंस था. मगर उनके बीच जाकर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, लोगों के बारे में, रिलेशनशिप्स के बारे में और साहित्य के बारे में. उन्हीं दिनों दोस्त बने, रिश्ते बने, लगाव हुआ और मनमुटाव भी. हमारे एक साथी थे, अभयराज, संघ से जुड़े, धीर-गंभीर, शांत, पैने तर्क देने वाले. उम्र में हमसे बड़े थे, दलितों की सामाजिक व्यवस्था पर शोध कर रहे थे, और उन्हीं की बस्ती में एक कमरा लेकर रहते थे, खाली समय में उनके बच्चों को पढ़ाते थे. उनके तर्क ने हमें यह मानने पर विवश कर दिया कि मार्क्सवादी विचारधारा दरअसल सामाजिक समरसता तक पहुंचती है और वह सोच तो पहले ही संघ के पास है. अभयराज से हमारी दोस्ती काफी लंबे समय तक चली.... फिर वे अचानक एक दिन गायब हो गए. उन्हीं दिनों वामपंथी संगठन के १५दिनी अखबार कैंपस के लिए फिल्म रिव्यू लिखी, इतनी पापुलर हुई कि उन्होंने उस पर एक लंबी बहस चला दी... उसके कारण मैं कई साल तक याद किया जाता रहा. उधर नाटक वालों के बीच एक्टिंग तो अपने बस की बात नहीं थी, मगर मैं प्रांप्टिंग करने लगा, यानी कि रिहर्सल के बीच डायलाग सही तरीके से बोलना जिसे अभिनेता दोहराते थे. वहीं एमए के दौरान कुछ और करीबी दोस्त बने, जिनसे नितांत घरेलू और आत्मीय किस्म के रिश्ते विकसित हुए... प्रशांत-बेहद सोशल, मगर उसकी मां बचपन मे गुजर गई थी, और कभी कड़ाहे के तेल से उसका चेहरा झुलस गया था, अंजू- मस्त, घरेलू, सुंदर और गुस्सैल, इन सबके बीच का वक्त मेरे लिए जाहिर तौर पर काफी उलझाव और दुविधा भरा था... उसके बारे में फिर कभी...

सोमवार, 2 जुलाई 2007

ये मानव रूप क्यों धरा ?

काम काम काम मिलता नहीं आराम , क्या करुं नाराज है मेरी जान ।
अखिर काम भी क्या ब्ला है? साला मनुष्य योनि में जनम लेना ही गुनाह है!
काश कोई परिंदा होते तो आराम से नीले गगन में उड़ते रहते , जब मन आता निचे उतरते नहीं तो नील गगन में कुलाचे मारते रहते ।
परिंदा ना सही कोई जानवर भी होता तो ऑफिस की किचकीच तो न सहना परता । आराम से जंगल में घुमते कोई काम का प्रेशर नहीं होता, जब मन करता सोते जब मन करता जागते
अब जब पिछले जनम के गुनाहों का फल मिल गया और मनुष्य योनि में जनम ले ही चुकें हैं तो कम से भाग कर कहॉ जाऊंगा । अब भले इस कम के कारन दोस्त सभी नाराज हैं कि उन्हें समय नहीं दे पाथा हूँ । कुछ खास इसलिया नाराज हैं कि कहीँ घुमाने नही ले जता हुईं , अब भगवन से यही मांगता हुईं की सारे कर्मो सॉरी कुकर्मों कि सजा यहीं दे दें और दया दिखाते हुए अगले जनम मोहे मानव रूप ना दीजे !
वैसे किसी कैंपस के दोस्त के पास मेरी समस्या का समाधान है तो कृपया मुझे जरुर बताएं!