शुक्रवार, 7 सितंबर 2007
कुछ आयाम मेरे भी होंगे
लंबे समय बाद आज लिखने का मौका मिला। वैसे अपना ब्लोग मैं देखूं या ना देखूं लेकिन भडास देखने कि आदत हो गयी है। खास तौर पर उसमे कंबतियां में एक आशा दिखाई देती है। ऐसा लगता है जैसे जितनी तेज़ी से इस कॉलम में ख़बरों का इजाफा हो रहा है, शायद उतनी ही तेज़ी से मीडिया भी बदल रहा है। पिछले दिनों जाने मने फिल्म पत्रकार अजय ब्रहाम्त्ज़ जी से बातें हो रही थी। उन्होने बताया कि फिल्मों से रेलातेद जितनी भी गोस्सिप चलती है, वो मुम्बई में बैठे कुछ लोगों द्वारा ही तयार किया जता है और वही गोस्सिप सरे अखबारों में अपने अपने तरीके से पेश किया जता है। मुझे लगता है शायद बहुत हद तक ऐसा ही मीडिया में भी हो रहा है। कुछ खास लोग ही हैं जो मीडिया का दिशा तय्यार कर रहे हैं। बाकी सरे लोग तो उनकी सोच को अमलीजामा पहनने का ही काम करते हैं। आख़िर सोच को दिशा देने के लिए काम करना होता है और काम करने के लिए मैन्पोवेर कि जरूरत होती ही है। शायद मैं विषय से भटक रह हूँ। बहरहाल आज इसलिये भी ये सब चीजें याद आ रही हैं कि इन दिनों पत्रकार बनने कि इच्छा रखने वाले दो तरह के लोगों से अक्सर सामना हो जाता है। और फिर लॉट जता हूँ कैम्पस कि उसी पुराणी दुनिया में, जब परिचर्चा लिखकर मैं सम्पादक के पास जाता था और जब तक वो लेख छप नही jata, तब तक उसके छापने के बाद कि ख़ुशी महसूस कर्ता था। और चाप जाने के बाद तो जैसे पुरी दुनिया मेरी मुट्ठी में आ जाती थी। १९९६ की बात है। उस वक़्त एक लेख के लिए जितने पैसे मुझे मिलते थें उससे ४ गुना उस लेख को पुरा करने में खर्च हो जाते थें। हालांकि उस वक़्त पैसे से ज्यादा मेरे लिए नाम इम्पोर्तंत था, इसलिये सक्रिफिस भी कर लेटा था। एक बार जब लिखना शुरू किया तो ये रोग बढ़ता ही गया और मुझे यहाँ कानपूर तक इलाज़ के लिए ले आया। अब तो लाइलाज हो चूका है। सो जुटा हूँ, इस उम्मीद में कि कुछ आयाम मेरे भी होंगे।
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