सोमवार, 24 दिसंबर 2007
वो प्रभात खबर के दिन
घनश्याम जी का ब्लोग देखने और पढ़ने के बाद कई चीजें याद आ गयीं। प्रभात खबर वाकई एक ऐसा संस्थान है, जहाँ लोग पत्रकार बनते हैं। १९९५ में मैं पहली बार घनश्याम जी से मिल था और उनहोंने मुझे काम भी दिया था। इसके बाद तो मैं साड़ी पढाई एक तरफ रख कर अपने आपको पत्रकार समझने लगा था। घनश्याम जी कि एक और खास बात ये है कि मैंने आज तक उन्हें किसी को निराश करते नही देखा। जो भी उनके पास आया, वो कभी निराश हो कर नही गया। पत्रकारिता में आज ऐसे बिरले ही लोग हैं। जब उनसे नजदीकियां बढ़ी तो उनहोंने मुझे समझाया था कि पत्रकारिता का शौक तो रखो लेकिन इसे career मत बनाना। मुझे उनकी उन गूढ़ बातों का रहस्य आज समझ आता है। उस वक़्त एक अर्तिक्ले के जितने पैसे मिलते थें उससे कहीं ज्यादा खर्च हो जाते थें, लेकिन छपास रोग लग चूका था और प्रभात खबर की भासा में मेरा करीयर दीवाल धर चूका था। प्रभात खबर में काम करने के अलावा शायद ही कोई इसका मतलब समझे। अगर दीवाल धरने का मतलब समझना हो तो घनश्याम जी से बेहतर इसे कोई नही समझा सकता।
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