रविवार, 15 जून 2008

मृणाल पांडेय जी के साथ एक दिन


शायद ही मैं इस दिन को भूल पाऊं, क्योंकि इस दिन हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक मृणाल पांडेय जी के साथ हमलोगों को काफी समय बिताने का अवसर मिला। केवल इसलिए यह यादगार नहीं था, क्योंकि वह हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक हैं, बलि्क इसलिए क्योंकि एक शखि्सयत और लेखिका के रूप में मैं उन्हें बरसों से पढ़ते भी आ रहा था। पहली बार जब उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो उनसे प्रभावित हुए बिना नही रही सका। अब तक लोगों को कहते सुना था और जब सामने मुलाकात हुई, तो महसूस भी किया कि लोग सही कहते थे। पहली बार मिलने के बाद से ही मेरी इच्छा थी कि मैं उनके साथ समय बिताऊं। वह समय भी जल्दी ही मिल गया। शनिवार को वह चंडीगढ़ में थीं। शाम करीब ४ बजे वह मोहाली में हिन्दुस्तान टाइम्स के ऑफिस पहुंची। मीटिंग में उन्होंने जिस सरलता से अपनी बातें रखीं और जिस मजबूती से अपने सुझाव दिए, उससे लग रहा था कि उनके सुझाव पर अभी से ही अमल कर दिया जाए। भविष्य में एचटी मीडिया की योजनाएं और वतॆमान में मीडिया के स्वरूप पर चचाॆ के बाद उन्होंने सभी से कहा कि अगर आपकी कुछ समस्याएं हों, तो हमें बताएं। कांफ्रेंस रूम से बाहर हमलोग अपने सेक्शन में पहुंचें, तो मृणाल जी ने सभी को अपने सिग्नेचर वाली डायरी भेंट की। रात में मृणाल जी के साथ ही लेकव्यू क्लब में शानदार पाटीॆ और कायॆक्रम का भी आयोजन था। संपादक अकू श्रीवास्तव जी ने पहले ही हम सभी से कह दिया था कि एडिशन ९ बजे तक छोड़ देना है। ऐसा हुआ भी। ९ बजे ही एडिशन छूटने के कारण संपादक जी ने कहा भी कि मतलब आप सब समय पर एडिशन छोड़ सकते हो, तो फिर और दिन लेट क्यों होते हो? वहां से सीधे हम लोग लेकव्यू क्लब पहुंचे। डीजे के साथ ही जैसा कि हर बड़े क्लबों में होता है, वेज-नॉनवेज की पूरी वैराइटी थी। पीने वालों के लिए भी पूरी व्यवस्था थी। मृणाल जी वहां मौजूद थीं। डीजे की धुन पर हम सभी के साथ मृणाल जी ने भी डांस किया। ११ बजे पाटीॆ अपने शबाब पर थी। केक कट चुके थे और सभी को गिफ्ट भी मिल चुका था। लाइट्स और म्यूजिक ऑफ होने के बाद कैंडल लाइट जलाई गई। हिन्दुस्तान टीम के कलाकार सहकर्मियों ने अपनी-अपनी कलाओं के नमूने पेश किए। कायॆक्रम की एंकरिंग की कमान मेरे हाथ थी। सो मेरे पास बेहतर मौका था अपनी कविताएं सुनाने का। बीच-बीच में मैंने कुछ कविताएं भी सुनाईं। कायॆक्रम ठहाकों और चूटीली प्रतिक्रियाओं के बीच रंग में था। इसके बाद खाने का दौर शुरू हुआ। तब तक रात के एक बजे चुके थे। मृणाल जी ने हम सब से विदा लीं और बेस्ट ऑफ लक कह कर चली गईं। इसके बाद धीरे-धीरे सभी लोग निकलते गए। हालांकि कुछ पीने-पिलाने वाले साथी कितनी देर रुकें, यह पता नहीं, क्योंकि अगले दिन ४ लोग छुट्टी पर थे। अगली पोस्ट में पढ़ें हमारे संपादक अकु श्रीवास्तव जी के बारे में।

गुरुवार, 12 जून 2008

हमारे कन्हैया जी (२)

विश्वस्त सूत्रों से मालूम हुआ है कि कन्हैया जी इन दिनों गोरा बनने के लिए तन-मन-धन से जुटे हैं। टीवी पर जितने भी तरह के फेयरनेस क्रीम के विग्यापन आते हैं, वह सब उनके घर में और ऑफिस में उनके ड्रावर में देखे जा सकते हैं। हालांकि फेयरनेस क्रीम का यूज करना उनके लिए कोई नई बात नहीं है, इसके पहले भी वह क्रीम यूज करते रहे हैं, लेकिन पहले मांग कर काम चलाते थे। बाद में जिनसे मांगा करते थे, उन्होंने लाना छो़ड़ दिया, क्योंकि उनके क्रीम की खपत तो बढ़ी ही थी, साथ ही अपनी क्रीम पर से उनका भरोसा भी उठने लगा था। फिर किसी ने सलाह दी कि खुद से खरीद कर क्रीम लगाने से ही क्रीम का असर आता है, सो वह तुरंत मॉल पहुंच गए और क्रीम ले आए। सुबह, दोपहर, शाम और रात सभी समय के लिए उनके पास अलग-अलग क्रीम है, जो वह लगाते हैं। शायद उनका विश्लास है कि कोई तो असर करेगी। ये गोरा बनने का भूत उन पर किस तरह सवार हुआ, इसकी जांच की तो पता चला कि हाल ही में उनके पड़ोस में तीन लड़कियां आई हैं, उन्हें ही रिझाने के लिए वह क्रीम का यूज कर रहे हैं। उनका नाम पता न होने के कारण कन्हैया जी ने उन्हें नंबर दे दिया है। नंबर १, नंबर २, नंबर ३। कंप्यूटर को भी उन्होंने घर पर इस तरह रखा है कि पड़ोसी की खिड़की कंप्यूटर चेयर पर बैठने से सामने दिखे। कंप्यूटर पर भी उन्हें मेरे सामने वाली खिड़की में...गाना सुनना आजकल खूब पसंद आ रहा है। कल तक कन्हैया जी कहते थे कि जिंदगी में कुछ नहीं रखा है, लेकिन आजकल वह अपने दोस्तों से कहते हैं कि जिंदगी में काफी रंग है, बस नजर का फेर है।

गुरुवार, 5 जून 2008

हमारे कन्हैया जी

एक हैं हमारे कन्हैया जी। कन्हैया जी जैसे शखि्सयत आजकल लुप्तप्राय हैं। मेरी खुशनसीबी (?) कि मुझे उनके साथ दो संस्थानों में काम करने का मौका मिला। एक प्रभात खबर दिल्ली और दूसरा आई-नेक्स्ट कानपुर। कन्हैया जी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह बहुत कूल हैं। अखबार के दफ्तरों में जहां पन्ने छोड़ने के समय काफी अफरा-तफरी का माहौल होता है। कन्हैया जी को मैने हमेशा कूल देखा है। उन्हें गुस्सा भी आता है तो उससे वह अपने ही तरीके से निपटते हैं। बिल्कुल मस्त और अजब-गजब चीजों के शौकीन। एक बार उन्हें पैसों की सख्त जरूरत थी। कहीं से उन्होंने २००० रुपए जुगाड़ किए और उसी दिन ९०० रुपए का चश्मा ले आए। वैसे मैंने कभी उन्हें चश्मा लगाते नहीं देखा। कानपुर में तो कभी मौका नहीं मिला, लेकिन दिल्ली में उनके हाथों का खाना जरूर खाया था। मिक्स वेजिटेबल मैंने जैसा उनके हाथों का खाया है, वैसा कभी नहीं खाया। अंदर से बेहद सीधे, लेकिन ऊपर से उतने ही सख्त और प्रोफेशनल दिखने वाले कन्हैया जी को काम के बीच में मुंगफली खाने का अजीब शौक है। अक्सर पेज देखते वक्त जब उनकी जरूरत होती और पता करता तो पता चलता कि वह तो नीचे गए हैं मुंगफली खाने। अकेले खाना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। हालांकि अगर कोई दूसरा खचॆ करे, तो वह दो-तीन लोगों के साथ भी खा लेते हैं। पार्टी से परहेज करते हैं। एक बार बड़ी मुशि्कल से उनका फरजी बथॆडे हमलोगों ने मनाया तो उन्होंने खचॆ किया था। अपने में मस्त इतना रहते हैं कि शायद ही कभी अपने दोस्तों को भी याद किया होगा। कोई फोन नहीं, कोई मेल नहीं। खाली समय में इंटरनेट पर नई-नई चीजें ढूंढ़ना उन्हें अच्छा लगता है। शादी हो गई है, दो बच्चे भी हैं, लेकिन अभी भी उनके इनबॉक्स में मेट्रीमोनियल साइट से ढेरों ऑफर पड़े हैं। फुसॆत के लम्हों में उन प्रोफाइल को चेक करते हुए भी उन्हें अक्सर काम खत्म होने के बाद देखा जा सकता है। इनकी एक और खासियत यह है कि बच्चों की तरह अगर इन्हें चिढा़या जाए, तो बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं। मैं अक्सर उन्हें चिढाया करता था और फिर मैं और रंधीर उनकी बातों के मजे लिया करते थे। वैसे व्यक्तिगत जीवन में कई मामलों में वह रंधीर से सलाह करने के बाद ही कोई कदम उठाते हैं। कन्हैया जी उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जो खुद ही सीखने का जज्बा रखते हैं और खुद ही कई नई चीजें कि्रएट भी करते हैं। डिजाइनिंग बहुत अच्छी करते हैं। हां, नई डिजाइनों के लिए जब तक उन्हें प्रेरित न किया जाए, वह पुराने से ही काम चलाते हैं। उनके साथ काम करते हुए कई बार तो मुझे ऐसा भी लगा कि कन्हैया जी अपनी योग्यता का महज ३०-४० फीसदी ही देते हैं। अगर उन्हें प्रेरणा मिले, तो मुझे कोई शक नहीं कि वह बहुत अच्छा कर सकते हैं, शायद सबसे अच्छा।