मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
आज पूरा हुआ एक साल, मगर मैं खुश नही हूँ
ली कर्बुजिये के सपनों के शहर में आज हिंदुस्तान के एक साल पुरे हो गएँ। आज पता चला की एक साल का समय कितना लंबा होता है। जैसे इस एक साल में सब कुछ बदल गया हो। जब हिंदुस्तान की शुरुवात हुई थी तब और आज के दिन में बहुत बड़ा फर्क था। आज चाह कर भी वो जोश ख़ुद में भर नही पाया जो इसके पहले दिन के प्रकाशन में था। मौसम की नमी ये अहसास दे रही थी जैसे अब हवाओं ने भी दिशा बदल दी है। एक मुट्ठी पकड़ कर अपने पास भी रखना चाहा लेकिन वो कहाँ कैद होने वाली थी। शायद मेरी तरह उस माहौल की तलाश में वो भी थी। मैंने रोकना भी नही चाहा और वो निकल भी गयी। फिर खामोशी को चीरती हुई शब्दों के बीच पसरा सन्नाटा और हम सब। कैसे भूल सकता हूँ वो दिन जब हम सब कुछ भूलकर एक नए मिशन में लगे थें। हाँ, मैं तो उसे मिशन ही कहूँगा, क्योंकि हिन्दी पत्रकारिता में हिंदुस्तान के साथ छोटे आकार में सोहनी सिटी का प्रकाशन एक नया प्रयोग था। एक ऐसे शहर में जिसके बारे में कहा जाता है की हर कोई इस शहर का हो जाता है, लेकिन ये शहर किसी का नही होता। वैसे तो कोई शहर आपका नही हो सकता, खासकर पत्रकारों के लिए। आख़िर कितने शहरों से दिल लगाया जाए। फिर जुदा तो होना है। पर दिल कहाँ मानता है। बहरहाल २१ अप्रैल २००८ के दिन हम सब पूरे जोश में थें। हम एक नया इतिहास लिखने जा रहे थें और हमने एक नया इतिहास लिख भी दिया। जोश से भर देने वाले गाने अब हिंदुस्तान के बरी है हम्मे और भी जोश भर रहे थें। हमने पुरी कोशिश की की गलतियाँ न जाए। अखबार छपने में थोड़ा लेट हुआ लेकिन हम सब वहां दते रहें। उत्साह से भरा पूरा माहौल किसी उत्सव सा अहसास दे रहा था।हमारे कदम थिरक रहे थें. अखबार छपने के बाद तो हमारी खुशी का ठिकाना न था। लग रहा था जैसे कोई जंग जीत ली हो। क़दमों की थिरकन बढ़ गयी थी, मन तो कर रहा था की आज जी भर कर नाच लें। महीने भर की थकन आज मिटा देन। लेकिन वो एक शुरुवात थी हेर दिन जंग जीतने की। संपादक जी के साथ हम सभी ने हाथों में अखबार लेकर फोटो भी खिचाई। हमारी छोटी सी टीम थी लेकिन एक परफेक्ट टीम। हर किसी की अपनी खासियत थी। किस्से कैसे काम लेना है ये संपादक जी को अच्छी तरह पता था। दिन बित्ते गएँ और हम नए नए प्रयोग करते हुए शहर में आगे बढ़ते रहें। फिर एक दिन ऐसा भी आया जब हमे पता चला की हमारी छोटी सी टीम और भी छोटी होने जा रही है। मेरे साथी धर्मेन्द्र जी का अलाहाबाद ट्रान्सफर हो गया। मुझे समझ नही आ रहा था की ये सब क्या हो रहा है। हालाँकि संपादक जी ने आश्वाशन दिया था की सब अच्छा होगा। फिर एक-एक कर ७ लोगोंका ट्रान्सफर हो गया। अब हमारी टीम और भी छोटी हो गयी थी। फिर जब ख़ुद संपादक जी का ट्रान्सफर हो गया तो हम सब हैरत में पड़ गए। मंदी के डर ने ये सोचने पैर विवश कर दिया की पता नही यहाँ एक साल पूरे होंगे भी की नही। लेकिन हर मुश्किलों से लड़ते हुए हमने जी-जान से काम किया और हर दिन बेहतर देने की कोशिश की। मुझे खुशी है ऐसी टीम के साथ काम कर जिसने सिर्फ़ और सिर्फ़ अखबार के बारे में सोचा। और आज जब एक साल पूरे होने पर हमने ऑफिस में एक छोटी सी पार्टी राखी तो एक-एक कर वो सभी याद आयें जो कभी यहीं, हमारे आस-पास की कुर्सियों पैर बैठा करते थें। निगाहें कई बार संपादक जी के केबिन की तरफ़ और हाथ फ़ोन की तरफ़ उठते जैसे इंतज़ार हो इस बात का की संपादक जी का फ़ोन आएगा और वो कहेंगे और सौरभ अगले साल क्या ख़ास करना है। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। सन्नाटा अब भी पसरा था, लेकिन थोडी चहल पहल के बीच कुछ शब्द अब भी कानों में पड़ रहे थें, जो कुछ और होते हुए भी कानों ko फुसफुसाहट लग रहे थें। मौका था सेलेब्रेशन का, लेकिन मैं खुश नही था। पता नही क्या, लेकिन एक कमी सी लग रही थी।
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3 टिप्पणियां:
जीवन में ऐसे दौर आते ही हैं...निराश न हों...वो सुभाह जरूर आएगी...
नीरज
Hum aapki bhaavnao ka kadar karte hain. this is life sirji... chalti rahti hai.. be happy in gods' will. i want to say, 'E junction gaddiyan da, ek aawe te ek jaave.'
it is nice to see ur article. bt what others say is correct. aisi choti choti baatein to hoti hi rehti ha is professional life mein. so dnt worry abt that and kp on progressing.
with lots of gd luck and wishes 4 ur future.
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