सोमवार, 20 जुलाई 2009

हमारे संपादक जी

इंडिया में किसी को ये कह दो आप की आप बहुत अच्छे हैं तो ज्यादातर का जवाब यही होता है की क्यों मजाक कर रहे हो भाई. फिर उसके बाद उसके मन में सबसे पहला सवाल यही खडा होता है की उसने ऐसा क्यों कहा. तरह तरह की संभावनाओं की कसौटी पर उसे कसा जाता है और फिर निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है. कहने का मतलब यहाँ हर कुछ के नेगेटिव अस्पेक्ट्स पर ज्यादा विचार होता है. वहीँ अमेरिकी देशों में अगर आप किसी की तारीफ करें तो जवाब एक वर्ड में मिलेगा थैंक्स. किसी की तारीफ करने का कोई मतलब नहीं निकला जाना चाहिए. उसे नकारात्मक तर्कों की कसौटी पर न कसकर तहे दिल से स्वीकार करना चाहिए. बहरहाल, आज मैं बात कर रहा हूँ हमारे संपादक जी की. संपादक जी कोई पद नहीं, ये वो संबोधन है जो हम अकु श्रीवास्तव जी के लिए आज भी प्रयोग करते हैं। आज भले ही वह पटना में है, लेकिन उनके साथ कम समय मे ही उन्हें जितना समझा उसके लिए अगर किसी विशेषण का प्रयोग किया जाए तो मैं उन्हें ग्रेट कैलकुलेटर कहूंगा। कैलकुलेटर इसलिए क्योंकि काम, प्रतिभा, योग्यता और संबंधों को लेकर उनका कैलकुलेशन शायद ही कभी गलत बैठा हो। एक बेहतर संपादक होने के साथ ही वह एक बहुत अच्छे मैनेजर भी हैं। मुझे पता नहीं कि विधिवत प्रबंधकीय शिक्छा उन्होंने ली है या नहीं, लेकिन प्रबंध ऐसा कि एक साधारण आदमी को इसके उद्देश्यों का पता ही न चले। यह उनकी प्रबंधकीय योग्यता ही थी किहर किसी को यही लगता था कि संपादक जी उनके सबसे करीब हैं। अपने साथ काम करने वालों का जितना ख्याल संपादक जी रखते थे, वैसा कम ही दिखता है हर..किसी की जरूरत को समझना और उसे पूरा करने का उन्होंने भरसक प्रयास किया। दूध नापने के लिए लैक्टोमीटर का प्रयोग किया जाता है। दूध अगर बिल्कुल शुद्ध है, तो उसे खाने के काम में, थोड़ा कम शुद्ध है तो चाय बनाने के काम में और अगर शुद्ध है ही नहीं तो उसे फेकना ही सही रहता है, नहीं तो उससे स्वास्थ्य का नुकसान हो सकता है। संपादक जी को इस मामले में भी मैं ग्रेट कैलकुलेटर कहूंगा क्योंकि किसी की काबीलियत को वह जितना बेहतर माप सकते हैं, वह अद्भुत है। उनकी आदत है कि वह सुनते कम हैं, लेकिन समझते पूरा से थोड़ा ज्यादा हैं। माचॆ २००८ में जब हमारी टीम चंडीगढ़ हिन्दुस्तान पहुंची, तो उन्होंने ९० पेज के फीचर सप्लीमेंट की जिम्मेदारी धर्मेंद्र जी को दी, जो शुरू से जनरल डेस्क पर ही काम किया करते थे और उन्हें खासतौर से इसलिए ही जाना जाता था। अक्सर शाम के समय हमलोग यही बात करते थे कि ९० पेज का सप्लीमेंट में जिस तरह काम हो रहा है, लगता नहीं कि ९० पेज निकल भी पाएंगे। लेकिन उन्होंने काम को जिस तरह टुकड़ों में बांटा और फिर उसकी कड़ी जोड़ी वह किसी आश्चयॆ से कम नहीं था। ९० पेज का ऐतिहासिक सप्लीमेंट निकला। यात्रा नाम के इस सप्लीमेंट की चर्चा आज भी होती है। इस सप्लीमेंट ने मेरे सामने काम करने के एक नए तरीके को सामने रखा, जिसमें सबसे ज्यादा जरूरी था अपने साथियों पर विश्वास। संपादक जी जिसपर विश्वास करते थे, पूरी तरह करते थे और संभवतः आज भी करते हैं। संस्थान के नजरिए से उनका पटना जाना भले ही बेहद जरूरी रहा हो, लेकिन मुझे इसका नुकसान उठा पड़ा। आज भी काम करते समय कई बार लगता है जैसे वह पीछे खड़े हों। अक्सर किसी तरह की गलती या कुछ नया होने पर हम सब उन्हें याद करते हैं। साथ ही इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलते कि अगर संपादक जी होते तो क्या कहते। (यह विचार नितांत मेरे अपने है। जरूरी नहीं कि दूसरा भी इससे सहमत हो। संपादक जी के बारे में अगर आप भी कुछ कहना चाहते हैं तो अपने कमेंट्स जरूर लिखें।)

2 टिप्‍पणियां:

adwet ने कहा…

बहुत सही और बहुत खूब लिखा आपने।

DREAM ने कहा…

bilkul theek kaha saurabh ji aapne. main to sir ke saath chandigarh ke pahle varanasi amar ujala mein bhi kaam kar chuka hoon. unka bharosa hi tha ki main chd mein bhi tha. MAINE YE ahsaas kiya hai ki kiske bheeta kita zigra hai ye wo bahut behtar tarrke se bhaanp lete hain .Yatra ka suppliment iska bada saboot hai. maine kabhi feature mein kaam nahin kiya tha lekin unke bharose ke bal par din raat ek karke hum logon ne kar dikhaya. isiye to hum log unhen mante hain asli "BOSS"