कैंपस में एक लंबे ब्रेक के बाद कुछ लिखने की फुरसत मिली है, मगर पता नहीं क्यों मुझे कैंपस के लिए लिखना काफी अच्छा लगा. यह मुझे नास्टेल्जिक होने का मौका तो देता ही है, अपने पुराने दिनों को दोबारा देखने और कई बीती बातों से सबक लेने का भी जैसे मौका देता है.
... पिछले दिनों कैंपस चर्चा पालीटिक्स तक पहुंच कर ठहर गई थी. डिग्री कालेज से निकलकर यूनीवर्सिटी पहुंचने के बीच का संक्रमण काल कुछ इस तरह का रहा कि दो नितांत विपरीत विचारधारा वाले लोगों के बीच उनको जानने, सुनने और समझने का मौका मिला. इसके अलावा आगे के चार-पांच साल थिएटर से जुड़े लोगों के बीच बीते. वह काफी अजब-गजब सा एक्सपीरिएंस था. मगर उनके बीच जाकर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, लोगों के बारे में, रिलेशनशिप्स के बारे में और साहित्य के बारे में. उन्हीं दिनों दोस्त बने, रिश्ते बने, लगाव हुआ और मनमुटाव भी. हमारे एक साथी थे, अभयराज, संघ से जुड़े, धीर-गंभीर, शांत, पैने तर्क देने वाले. उम्र में हमसे बड़े थे, दलितों की सामाजिक व्यवस्था पर शोध कर रहे थे, और उन्हीं की बस्ती में एक कमरा लेकर रहते थे, खाली समय में उनके बच्चों को पढ़ाते थे. उनके तर्क ने हमें यह मानने पर विवश कर दिया कि मार्क्सवादी विचारधारा दरअसल सामाजिक समरसता तक पहुंचती है और वह सोच तो पहले ही संघ के पास है. अभयराज से हमारी दोस्ती काफी लंबे समय तक चली.... फिर वे अचानक एक दिन गायब हो गए. उन्हीं दिनों वामपंथी संगठन के १५दिनी अखबार कैंपस के लिए फिल्म रिव्यू लिखी, इतनी पापुलर हुई कि उन्होंने उस पर एक लंबी बहस चला दी... उसके कारण मैं कई साल तक याद किया जाता रहा. उधर नाटक वालों के बीच एक्टिंग तो अपने बस की बात नहीं थी, मगर मैं प्रांप्टिंग करने लगा, यानी कि रिहर्सल के बीच डायलाग सही तरीके से बोलना जिसे अभिनेता दोहराते थे. वहीं एमए के दौरान कुछ और करीबी दोस्त बने, जिनसे नितांत घरेलू और आत्मीय किस्म के रिश्ते विकसित हुए... प्रशांत-बेहद सोशल, मगर उसकी मां बचपन मे गुजर गई थी, और कभी कड़ाहे के तेल से उसका चेहरा झुलस गया था, अंजू- मस्त, घरेलू, सुंदर और गुस्सैल, इन सबके बीच का वक्त मेरे लिए जाहिर तौर पर काफी उलझाव और दुविधा भरा था... उसके बारे में फिर कभी...
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