वेदान्त दर्शन में जिसे सूक्ष्म शरीर कहा गया है क्या वह असल में डीएनए की ओर ही संकेत है। कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि और अहंकार से मिलकर बना है। डीएनए के भी दो मुख्य गुण हैं, जिनकी वजह से उसे जीवन का आधार कहा जाता है- सेंस और एंटी सेंस। सेंस ही बुद्धि है और एंटीसेंस प्रतिक्रिया यानी अहंकार।
इस संबंध में विस्तार से पढ़ें-http://sudhirraghav.blogspot.com/
सोमवार, 21 सितंबर 2009
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
एप्रीशिएट करें राखी को

मंगलवार, 28 जुलाई 2009
एक छोटी सी प्रेम कहानी में बड़े-बड़े टि्व्स्ट
चंद्रमोहन और अनुराधा उर्फ.फिजा की छोटी सी लव स्टोरी में इतने सारे टर्निंग प्वाइंट रहे हैं, कि आज अगर टेलीविजन पर एकता कपूर का राज चलता रहता तो वह इनकी प्रेम कहानी पर कहानी चांद फिजा की नाम से अब तक सीरियल बना चुकी होतीं। इनकी प्रेम कहानी में इजहार है, इनकार है, तकरार है, फिर प्यार का इकरार है। हालांकि एक बार इनकार के बाद शब्दों का वार तो चलता ही रहा है। कहने का मतलब कहानी पूरी फिल्मी से थोड़ी ज्यादा ही है। अगर उनकी प्रेम कहानी पर कोई फिल्म बन जाए तो चलेगी नहीं। चलेगी इसिलए नहीं, क्योंकि दर्शकों का पहला रिएक्शन यही होगा कि असल जिंदगी में ऐसा भी कहीं होता है। लेकिन ऐसा हुआ है और हो रहा है। यह ऐसा ड्रामा है, जहां कुछ दिनों के अंतराल पर कुछ न कुछ नया होता रहता है। चंद्रमोहन को अनुराधा से प्यार हो जाता है। कई दिनों तक वह गायब रहते हैं। खोजबीन चलती है, लेकिन उनका कुछ पता नहीं चलता है। फिर अचानक एक दिन प्रकट होते हैं, लेकिन इस बार चंद्रमोहन चांद मोहम्मद बन चुके होते हैं और साथ में होती हैं उनकी नई पत्नी अनुराधा उफॆ फिजा। एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले, मीडिया के सामने उन्होंने खुलकर अपने प्यार का इजहार किया। कुछ ही दिनों बाद चांद मोहम्मद को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। फिजा को पाने के बाद चंद्रमोहन अपनी पहली पत्नी और बच्चों को भूल चुके थे। अभी उनके प्यार को कुछ ही माह बीते थे कि चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद फिर गायब हो जाते हैं। फिजा ने उनके घरवालों पर आरप लगाया और फिर चांद की खोजबीन शुरू होती है। इस बीच फिजा ने नींद की गोलियां निगल लीं. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन चांद का तब तक कोई पता न था। फिर चांद का फोन आता है कि वह ठीक है। यहीं पर दोनों के प्यार में दरारें दिखनी शुरू हो गईं थीं। अभी कुछ ही दिन बीते थे कि फिजा को पता चला कि वह विदेश चला गया है। इस बार फिजा की गुस्सा का ठिकाना न था। उसने चांद मोहम्मद पर बलात्कार का आरप लगा दिया। शिकायत दी गई। चांद का जवाब आया कि वह इलाज कराने गया है और फिजा का मानना था कि वह अपनी पहली बीवी और बच्चों के साथ घूम रहा है। फिर एक और टर्निंग प्वाइंट। चांद ने एसएमएस के माध्यम से फिजा को तलाक लिख कर भेज दिया। उसके बाद से दोनों ही तरफ से आरोपों का दौर शुरू हो गया। फिर एक दिन अचानक चांद लौट आया। फिजा के घर के बाहर वह घंटो बैठा रहा, फिर फिजा आई और दोनों को इस तरह एक साथ देख कर यही लग रहा था कि फिजा ने चांद को माफ कर दिया है और उन्हें एक-दूसरे का प्यार मिल गया है। उस समय चांद ने तलाक वाली बात पर कहा था कि तीन बार तलाक लिखने से तलाक होता है, मैंने तो दो ही बार तलाक लिख था। हालांकि फिजा ने साफ कहा था कि वह चांद मोहम्मद पर यकीन नहीं कर सकती। उसे माफ करने के बारे में वह सोचेगी। फिर चंद्रमोहन के कुल्हे का दिल्ली में ऑपरेशन और फिजा का रियलिटी शो में जाना। रियलिटी शो से फिजा जिस दिन वापस आईं, उस दिन उनका जन्मदिन था, लेकिन चांद ने उन्हें फोन नहीं किया था। फिर चांद ने मां जसमा देवी के साथ हिसार के सपरा अस्पताल में अपना इलाज शुरू करवाया। यहीं उन्होंने कहा कि वह फिर से चंद्रमोहन बनने जा रहे हैं। इस बार तो फिजा के गुस्से का ठिकाना ही न रहा। चांद के साथ-साथ उन्होंने उनकी मां को भी निशाने पर लिया। फिजा ने कहा कि चांद के पूरे परिवार का दिमाग फिर गया है। उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर की आवश्यकता है। चांद को सिरफिरा बताते हुए फिजा ने यह भी कहा कि चांद के घर वापस आने पर वह उन्हें माफ करने के बारे में सोचने लगी थीं, लेकिन अब तो सवाल ही नहीं उठता। यह सब तो २७ जुलाई तक की ही बात है। यानी उनकी शादी के अभी एक साल भी पूरे नहीं हुए हैं। ड्रामा तो अभी जारी है...
शनिवार, 25 जुलाई 2009
अच्छी श्रद्धांजलि दी है तुमने सोनिया
प्यार एक शब्द, एक लफ्ज, एक एहसास है। सागर से गहरा और पवॆतों से ऊंचा है, इसे इतना नीचे नहीं गिरना चाहिए था सोनिया। हरियाणा के नरवाना जिले के सिंहवाला गांव में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, वह भले ही खापों के अमानवीय फैसलों का नतीजा था। उनके तुगलकी फरमान से कई बार पति-पत्नी तक को भाई-बहन मानने पर मजबूर होना पड़ा है। कितने घर उजड़ गए हैं। खापों के असि्तत्व और हरियाणवी समाज में उनकी प्रासंगिकता बहस का एक अलग विषय हो सकता है, लेकिन अपने प्रेमी वेदपाल की मौत पर सोनिया की श्रद्धांजलि शायद ही कोई भूल पाए। इसे ही कहते हैं यू-टनॆ। वेदपाल और सोनिया दोनों को ही इस बात का पता होगा कि उनकी शादी इतनी आसानी से स्वीकार नहीं होगी। पूरी उम्मीद है कि दोनों ने साथ जीने-मरने की कसमें खाई होंगी। लेकिन प्रेम की इस कहानी में वेदपाल जीत गया और सोनिया ने अपनी बेवफाई का एक ऐसा उदाहरण पेश किया, जिसे प्यार करने वाले तो शायद कभी माफ न करें। जिस रात उसका कत्ल हुआ, उस दिन वह अपनी पत्नी सोनिया को उसके घर से लाने गया था। खापों ने उसे सोनिया को ले जाने नहीं दिया और उसकी हत्या कर दी। व्यवस्था की यह अजीब विडंबना है कि व्यवस्थातन्र नाकाम रही। बहरहाल, सोनिया का अगले दिन यह बयान आया कि वेदपाल ने उससे जबरदस्ती शादी की थी। वह उसे नशे का इंजेक्शन देता था। उसे बरगला कर घर से भगा ले गया था। एक-एक झूठ ऐसा कि हर झूठ पर सोनिया के लिए बददुआएं ही निकले। किसी ने कहा, उसकी मजबूरी रही होगी। मैं कहता हूं, कौन-सी मजबूरी। अपने घरवालों को बचाने की मजबूरी, वह तो फंस ही चुके हैं, इस बयान से उनका कोई भला नहीं होने वाला। भला होगा तो उन खापों का, जिन्होंने वेदपाल की जान ली। उसी वेदपाल की जिसने उसका साथ पाने के लिए अपने जान की परवाह तक नहीं की। अच्छा सिला दिया सोनिया ने। पता नहीं ऐसे लोग प्यार के रास्ते पर आगे बढ़ते ही क्यों हैं। निभाने का जज्बा न हो, तो प्रेम की शुरुआत ही क्यों करते हैं ऐसे लोग। प्रेम में प्रेमी की जान चली गई और प्रेमिका प्रेमी को ही गलत ठहरा रही है। अच्छी श्रद्धांजलि दी है तुमने सोनिया। कम से कम इसके लिए लोग तुम्हें याद तो रखेंगे।
सोमवार, 20 जुलाई 2009
हमारे संपादक जी
इंडिया में किसी को ये कह दो आप की आप बहुत अच्छे हैं तो ज्यादातर का जवाब यही होता है की क्यों मजाक कर रहे हो भाई. फिर उसके बाद उसके मन में सबसे पहला सवाल यही खडा होता है की उसने ऐसा क्यों कहा. तरह तरह की संभावनाओं की कसौटी पर उसे कसा जाता है और फिर निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है. कहने का मतलब यहाँ हर कुछ के नेगेटिव अस्पेक्ट्स पर ज्यादा विचार होता है. वहीँ अमेरिकी देशों में अगर आप किसी की तारीफ करें तो जवाब एक वर्ड में मिलेगा थैंक्स. किसी की तारीफ करने का कोई मतलब नहीं निकला जाना चाहिए. उसे नकारात्मक तर्कों की कसौटी पर न कसकर तहे दिल से स्वीकार करना चाहिए. बहरहाल, आज मैं बात कर रहा हूँ हमारे संपादक जी की. संपादक जी कोई पद नहीं, ये वो संबोधन है जो हम अकु श्रीवास्तव जी के लिए आज भी प्रयोग करते हैं। आज भले ही वह पटना में है, लेकिन उनके साथ कम समय मे ही उन्हें जितना समझा उसके लिए अगर किसी विशेषण का प्रयोग किया जाए तो मैं उन्हें ग्रेट कैलकुलेटर कहूंगा। कैलकुलेटर इसलिए क्योंकि काम, प्रतिभा, योग्यता और संबंधों को लेकर उनका कैलकुलेशन शायद ही कभी गलत बैठा हो। एक बेहतर संपादक होने के साथ ही वह एक बहुत अच्छे मैनेजर भी हैं। मुझे पता नहीं कि विधिवत प्रबंधकीय शिक्छा उन्होंने ली है या नहीं, लेकिन प्रबंध ऐसा कि एक साधारण आदमी को इसके उद्देश्यों का पता ही न चले। यह उनकी प्रबंधकीय योग्यता ही थी किहर किसी को यही लगता था कि संपादक जी उनके सबसे करीब हैं। अपने साथ काम करने वालों का जितना ख्याल संपादक जी रखते थे, वैसा कम ही दिखता है हर..किसी की जरूरत को समझना और उसे पूरा करने का उन्होंने भरसक प्रयास किया। दूध नापने के लिए लैक्टोमीटर का प्रयोग किया जाता है। दूध अगर बिल्कुल शुद्ध है, तो उसे खाने के काम में, थोड़ा कम शुद्ध है तो चाय बनाने के काम में और अगर शुद्ध है ही नहीं तो उसे फेकना ही सही रहता है, नहीं तो उससे स्वास्थ्य का नुकसान हो सकता है। संपादक जी को इस मामले में भी मैं ग्रेट कैलकुलेटर कहूंगा क्योंकि किसी की काबीलियत को वह जितना बेहतर माप सकते हैं, वह अद्भुत है। उनकी आदत है कि वह सुनते कम हैं, लेकिन समझते पूरा से थोड़ा ज्यादा हैं। माचॆ २००८ में जब हमारी टीम चंडीगढ़ हिन्दुस्तान पहुंची, तो उन्होंने ९० पेज के फीचर सप्लीमेंट की जिम्मेदारी धर्मेंद्र जी को दी, जो शुरू से जनरल डेस्क पर ही काम किया करते थे और उन्हें खासतौर से इसलिए ही जाना जाता था। अक्सर शाम के समय हमलोग यही बात करते थे कि ९० पेज का सप्लीमेंट में जिस तरह काम हो रहा है, लगता नहीं कि ९० पेज निकल भी पाएंगे। लेकिन उन्होंने काम को जिस तरह टुकड़ों में बांटा और फिर उसकी कड़ी जोड़ी वह किसी आश्चयॆ से कम नहीं था। ९० पेज का ऐतिहासिक सप्लीमेंट निकला। यात्रा नाम के इस सप्लीमेंट की चर्चा आज भी होती है। इस सप्लीमेंट ने मेरे सामने काम करने के एक नए तरीके को सामने रखा, जिसमें सबसे ज्यादा जरूरी था अपने साथियों पर विश्वास। संपादक जी जिसपर विश्वास करते थे, पूरी तरह करते थे और संभवतः आज भी करते हैं। संस्थान के नजरिए से उनका पटना जाना भले ही बेहद जरूरी रहा हो, लेकिन मुझे इसका नुकसान उठा पड़ा। आज भी काम करते समय कई बार लगता है जैसे वह पीछे खड़े हों। अक्सर किसी तरह की गलती या कुछ नया होने पर हम सब उन्हें याद करते हैं। साथ ही इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलते कि अगर संपादक जी होते तो क्या कहते। (यह विचार नितांत मेरे अपने है। जरूरी नहीं कि दूसरा भी इससे सहमत हो। संपादक जी के बारे में अगर आप भी कुछ कहना चाहते हैं तो अपने कमेंट्स जरूर लिखें।)
रविवार, 19 जुलाई 2009
रविवार, 26 अप्रैल 2009
अब ऑनलाइन रिचार्ज कर सकते हैं मोबाइल
हलाँकि ये ख़बर कोई नयी नही है, लेकिन जिन्हें नही पता है उनके लिए बेहद उपयोगी है। मोबाइल रिचार्ज कराने के लिए अगर आप अब भी दुकानों के चक्कर लगते हैं या जरूरत होने पर भी नही जा पते हैं, या आपकी जरूरत के अनुसार टॉपउप या प्लान का कूपन नही मिल पता है तो अब आपके पास है वन स्टाप ऑनलाइन रिचार्ज डेस्टिनेशन। बस साइन इन करें www.rechargeitnow.com. इसके लिए आपके पास होने चाहिए डेबिट या क्रेडिट कार्ड और नेट बैंकिंग। आप किसी भी मोबाइल के उपभोक्ता हों, वेबसाइट पर उपलब्ध इन सेवाओं का लाभ उठा सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो ये की इसके लिए आपको कोई अतिरिक्त शुल्क नही देना होगा। इन सेवाओं का लाभ उठाने के लिए आपको वेबसाइट पर रजिस्ट्रेशन करना होगा, जो बिल्कुल मुफ्त है। साईट द्वारा कई चरणों में आपकी पहचान पक्की की जाती है ताकि आपके अकाउंट से कोई हेरा फेरी न कर सके। इस सुविधा को पूरी तरह सुरक्षित बनने के लिए ई मेल से लेकर आपके मोबाइल को कई चरणों में कन्फर्म किया जाता है। आप अपने जरूरत के मुताबिक अपना मोबाइल रिचार्ज करा सकते हैं। इसके अलावा आप इस सेवा का लाभ www.easymobilerecharge.com, www.fastrecharge.com, www.indiamobilerecharge.com, www.onlinemobilerecharge.com, www.cashnetindia.com साइट्स से भी उठा सकते हैं.
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
आज पूरा हुआ एक साल, मगर मैं खुश नही हूँ
ली कर्बुजिये के सपनों के शहर में आज हिंदुस्तान के एक साल पुरे हो गएँ। आज पता चला की एक साल का समय कितना लंबा होता है। जैसे इस एक साल में सब कुछ बदल गया हो। जब हिंदुस्तान की शुरुवात हुई थी तब और आज के दिन में बहुत बड़ा फर्क था। आज चाह कर भी वो जोश ख़ुद में भर नही पाया जो इसके पहले दिन के प्रकाशन में था। मौसम की नमी ये अहसास दे रही थी जैसे अब हवाओं ने भी दिशा बदल दी है। एक मुट्ठी पकड़ कर अपने पास भी रखना चाहा लेकिन वो कहाँ कैद होने वाली थी। शायद मेरी तरह उस माहौल की तलाश में वो भी थी। मैंने रोकना भी नही चाहा और वो निकल भी गयी। फिर खामोशी को चीरती हुई शब्दों के बीच पसरा सन्नाटा और हम सब। कैसे भूल सकता हूँ वो दिन जब हम सब कुछ भूलकर एक नए मिशन में लगे थें। हाँ, मैं तो उसे मिशन ही कहूँगा, क्योंकि हिन्दी पत्रकारिता में हिंदुस्तान के साथ छोटे आकार में सोहनी सिटी का प्रकाशन एक नया प्रयोग था। एक ऐसे शहर में जिसके बारे में कहा जाता है की हर कोई इस शहर का हो जाता है, लेकिन ये शहर किसी का नही होता। वैसे तो कोई शहर आपका नही हो सकता, खासकर पत्रकारों के लिए। आख़िर कितने शहरों से दिल लगाया जाए। फिर जुदा तो होना है। पर दिल कहाँ मानता है। बहरहाल २१ अप्रैल २००८ के दिन हम सब पूरे जोश में थें। हम एक नया इतिहास लिखने जा रहे थें और हमने एक नया इतिहास लिख भी दिया। जोश से भर देने वाले गाने अब हिंदुस्तान के बरी है हम्मे और भी जोश भर रहे थें। हमने पुरी कोशिश की की गलतियाँ न जाए। अखबार छपने में थोड़ा लेट हुआ लेकिन हम सब वहां दते रहें। उत्साह से भरा पूरा माहौल किसी उत्सव सा अहसास दे रहा था।हमारे कदम थिरक रहे थें. अखबार छपने के बाद तो हमारी खुशी का ठिकाना न था। लग रहा था जैसे कोई जंग जीत ली हो। क़दमों की थिरकन बढ़ गयी थी, मन तो कर रहा था की आज जी भर कर नाच लें। महीने भर की थकन आज मिटा देन। लेकिन वो एक शुरुवात थी हेर दिन जंग जीतने की। संपादक जी के साथ हम सभी ने हाथों में अखबार लेकर फोटो भी खिचाई। हमारी छोटी सी टीम थी लेकिन एक परफेक्ट टीम। हर किसी की अपनी खासियत थी। किस्से कैसे काम लेना है ये संपादक जी को अच्छी तरह पता था। दिन बित्ते गएँ और हम नए नए प्रयोग करते हुए शहर में आगे बढ़ते रहें। फिर एक दिन ऐसा भी आया जब हमे पता चला की हमारी छोटी सी टीम और भी छोटी होने जा रही है। मेरे साथी धर्मेन्द्र जी का अलाहाबाद ट्रान्सफर हो गया। मुझे समझ नही आ रहा था की ये सब क्या हो रहा है। हालाँकि संपादक जी ने आश्वाशन दिया था की सब अच्छा होगा। फिर एक-एक कर ७ लोगोंका ट्रान्सफर हो गया। अब हमारी टीम और भी छोटी हो गयी थी। फिर जब ख़ुद संपादक जी का ट्रान्सफर हो गया तो हम सब हैरत में पड़ गए। मंदी के डर ने ये सोचने पैर विवश कर दिया की पता नही यहाँ एक साल पूरे होंगे भी की नही। लेकिन हर मुश्किलों से लड़ते हुए हमने जी-जान से काम किया और हर दिन बेहतर देने की कोशिश की। मुझे खुशी है ऐसी टीम के साथ काम कर जिसने सिर्फ़ और सिर्फ़ अखबार के बारे में सोचा। और आज जब एक साल पूरे होने पर हमने ऑफिस में एक छोटी सी पार्टी राखी तो एक-एक कर वो सभी याद आयें जो कभी यहीं, हमारे आस-पास की कुर्सियों पैर बैठा करते थें। निगाहें कई बार संपादक जी के केबिन की तरफ़ और हाथ फ़ोन की तरफ़ उठते जैसे इंतज़ार हो इस बात का की संपादक जी का फ़ोन आएगा और वो कहेंगे और सौरभ अगले साल क्या ख़ास करना है। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। सन्नाटा अब भी पसरा था, लेकिन थोडी चहल पहल के बीच कुछ शब्द अब भी कानों में पड़ रहे थें, जो कुछ और होते हुए भी कानों ko फुसफुसाहट लग रहे थें। मौका था सेलेब्रेशन का, लेकिन मैं खुश नही था। पता नही क्या, लेकिन एक कमी सी लग रही थी।
बुधवार, 7 जनवरी 2009
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