मंगलवार, 19 अगस्त 2008
आज दुआ कीजिए
रविवार, 15 जून 2008
मृणाल पांडेय जी के साथ एक दिन
शायद ही मैं इस दिन को भूल पाऊं, क्योंकि इस दिन हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक मृणाल पांडेय जी के साथ हमलोगों को काफी समय बिताने का अवसर मिला। केवल इसलिए यह यादगार नहीं था, क्योंकि वह हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक हैं, बलि्क इसलिए क्योंकि एक शखि्सयत और लेखिका के रूप में मैं उन्हें बरसों से पढ़ते भी आ रहा था। पहली बार जब उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो उनसे प्रभावित हुए बिना नही रही सका। अब तक लोगों को कहते सुना था और जब सामने मुलाकात हुई, तो महसूस भी किया कि लोग सही कहते थे। पहली बार मिलने के बाद से ही मेरी इच्छा थी कि मैं उनके साथ समय बिताऊं। वह समय भी जल्दी ही मिल गया। शनिवार को वह चंडीगढ़ में थीं। शाम करीब ४ बजे वह मोहाली में हिन्दुस्तान टाइम्स के ऑफिस पहुंची। मीटिंग में उन्होंने जिस सरलता से अपनी बातें रखीं और जिस मजबूती से अपने सुझाव दिए, उससे लग रहा था कि उनके सुझाव पर अभी से ही अमल कर दिया जाए। भविष्य में एचटी मीडिया की योजनाएं और वतॆमान में मीडिया के स्वरूप पर चचाॆ के बाद उन्होंने सभी से कहा कि अगर आपकी कुछ समस्याएं हों, तो हमें बताएं। कांफ्रेंस रूम से बाहर हमलोग अपने सेक्शन में पहुंचें, तो मृणाल जी ने सभी को अपने सिग्नेचर वाली डायरी भेंट की। रात में मृणाल जी के साथ ही लेकव्यू क्लब में शानदार पाटीॆ और कायॆक्रम का भी आयोजन था। संपादक अकू श्रीवास्तव जी ने पहले ही हम सभी से कह दिया था कि एडिशन ९ बजे तक छोड़ देना है। ऐसा हुआ भी। ९ बजे ही एडिशन छूटने के कारण संपादक जी ने कहा भी कि मतलब आप सब समय पर एडिशन छोड़ सकते हो, तो फिर और दिन लेट क्यों होते हो? वहां से सीधे हम लोग लेकव्यू क्लब पहुंचे। डीजे के साथ ही जैसा कि हर बड़े क्लबों में होता है, वेज-नॉनवेज की पूरी वैराइटी थी। पीने वालों के लिए भी पूरी व्यवस्था थी। मृणाल जी वहां मौजूद थीं। डीजे की धुन पर हम सभी के साथ मृणाल जी ने भी डांस किया। ११ बजे पाटीॆ अपने शबाब पर थी। केक कट चुके थे और सभी को गिफ्ट भी मिल चुका था। लाइट्स और म्यूजिक ऑफ होने के बाद कैंडल लाइट जलाई गई। हिन्दुस्तान टीम के कलाकार सहकर्मियों ने अपनी-अपनी कलाओं के नमूने पेश किए। कायॆक्रम की एंकरिंग की कमान मेरे हाथ थी। सो मेरे पास बेहतर मौका था अपनी कविताएं सुनाने का। बीच-बीच में मैंने कुछ कविताएं भी सुनाईं। कायॆक्रम ठहाकों और चूटीली प्रतिक्रियाओं के बीच रंग में था। इसके बाद खाने का दौर शुरू हुआ। तब तक रात के एक बजे चुके थे। मृणाल जी ने हम सब से विदा लीं और बेस्ट ऑफ लक कह कर चली गईं। इसके बाद धीरे-धीरे सभी लोग निकलते गए। हालांकि कुछ पीने-पिलाने वाले साथी कितनी देर रुकें, यह पता नहीं, क्योंकि अगले दिन ४ लोग छुट्टी पर थे। अगली पोस्ट में पढ़ें हमारे संपादक अकु श्रीवास्तव जी के बारे में।
गुरुवार, 12 जून 2008
हमारे कन्हैया जी (२)
गुरुवार, 5 जून 2008
हमारे कन्हैया जी
शुक्रवार, 30 मई 2008
...और मैं पास हो गया
मंगलवार, 27 मई 2008
वो दसवीं के रिजल्ट का इंतज़ार
सोमवार, 26 मई 2008
अनिल सिन्हा जीः जाना एक सोच का
रिश्तों को भरपूर जिएं
मंगलवार, 20 मई 2008
अनुभव चंडीगढ़ का-१
वैसे तो चंडीगढ़ को हिंदुस्तान का सबसे सुंदर शहर कहा जाता है। मुझे भी यह शहर पंसंद आया। लेकिन सच कहूँ तो दिल से नही, मेरे साथ आये कई सथिओं ने भी कहा। इसकी वजह भी थी अपनी या और साथियन की जिंदगी कभी इतना व्यवथित नही रहा जितना यह शहर है। इस लिए शुरुआती मुश्किलो से जूझना पड़ा। सच कहता हूँ दोस्तो, वैसे शहर मैं आपका भी मन नही लग सकता जहा चाय पीनी हो तो मीलों चलाना हो।
दोस्तो रात के तीन बज चुके है ड्यूटी भी करनी है सो फ़िर मिलेगे चंडीगढ़ की यादों के साथ....
गुड लक
गंगेश श्रीवास्तव
अब हिंदुस्तान की बारी है (२)
अब हिंदुस्तान की बारी है (१)
शनिवार, 10 मई 2008
फिट है राहुल
आई नेक्स्ट जहां मैंने लगभग डेढ़ साल बिताए और बहुत कुछ सीखा। कानपुर से इतनी दूर चंडीगढ़ आने के बाद भी कुछ लोग भूलते नहीं हैं। इत्तफाक ऐसा कि चंडीगढ़ में भी लांचिंग के दौरान ही आना हुआ। लांचिंग के समय की समस्याएं और मुसीबतों से वाकिफ था, सो पहले से ही बिना छुट्टी के कड़ी मेहनत का प्लान बना चुका था।
छोटे शहर के लोगों की भावनाएं बहुत बड़ी होती हैं। कानपुर के लोगों की तरह। मुझे वह समय भी याद है, जब दिल्ली में ९ साल रहने के बाद कानपुर आया था। तब दिल्ली तो याद aa रही थी, लेकिन वहां के लोग नहीं। शायद इसकी वजह यह भी थी दिल्ली के मित्रों ने भी भूलने में ज्यादा वक्त नहीं लिया। बहरहाल, मैं बात कर रहा था कानपुर की।राहुल है उसका नाम। पहली बार मिला तो लगा कि अाई नेक्स्ट के टेस्ट के लिहाज से बिल्कुल फिट है। वैसे मेरा अंदाजा भी सही ही निकला। सबसे ज्यादा इस बात की खुशी होती है कि मैंने अपनी टीम के लोगों से जितनी उम्मीद की थी वह सब उस पर सभी खरे उतरे हैं। राहुल जब पहली बार काम पर आया था, तभी उसने मुझसे कहा था कि वह मुझे अगले दिन अफगानी चिकन खिलाएगा। डेढ़ साल हो गए और मैं चंडीगढ़ आ गया lएकं उसने मुझे अफगानी चिकन नहीं खिलाया। अपने काम में उस्ताद राहुल ने बहुत जल्द ख़ुद को साबित कर दिया। आज कानपूर में जिनको सबसे ज्यादा मिस करता हूँ उनमे से एक राहुल भी हैं। उसने हमेसा मुझे यही एह्सश कराया की वो मेरे साथ है। राहुल के बरे में फिर कभी।
मंगलवार, 6 मई 2008
रणधीर के बहाने कुछ बातें
रंधीर के बहाने बहुत कुछ कहा जा सकता है। वैसे नाम उसका रजनीश है, लेकिन शायद ही मैंने उसे कभी रजनीश कहा हो। गलत कहते हैं लोग की लोगों में अब संवेदनाएं नहीं रही। बेहद भावुक किस्म के रंधीर ने शायद ही कभी किसी का बुरा चाहा हो। उसके पास जितना कुछ भी है, वह उससे ज्यादा देना चाहता है। अपने सीमित संसाधन में भी वह हर किसी के लिए बहुत कुछ करना चाहता है। आशार्य होता है की aअज के जमाने में किसी की खुशी के लिए भी कोई इतना सैक्रीफाइज कर सकता है। मेहनत से कभी वह पीछे नहीं रहा। यही वजह थी की बहुत कम समय में ही उसने मनोरंजन की दुनिया पर अच्छी पकड़ बना ली। अपने आसपास के वातावरण में खुद को कैसे ढाला जाए यह रंधीर से सीखा जा सकता है। बुरे से बुरे स्तिथि में भी उसने साथ वालों को ढांढस ही बंधाया है। अक्सर मैं उसे समझाता था की अपने बारे में भी सोचना उतना ही जरूरी है। किसी तरह की औपचारिकता पर उसे विश्वाश नहीं।सबसे खास बात यह kइ जिस भी काम को हाथ में लेता है, उसे अपनी तरफ से बेस्ट देने की कोशिश करता है। काम किसी तरह हो जाए पर उसे विश्वाश नहीं, हमेशा अपनी तरफ से बेस्ट देने पर ही उसे विश्वाश है। दुख होता है रंधीर जैसे लोगों को कोई समझ नहीं पाता और कभी-कभी कोफ्त होती है रंधीर जैसे लोगों से भी, की क्यों नहीं बदलते वह अपने आप को। आयी -नेक्स्ट में जितने भी दिन रहा, कभी उसने किसी काम के लिए न नहीं किया।कभी-कभी बेस्ट करने की कोशिश में पन्ने लेट भी करता था। ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत गुस्सा भी आता था, लेकिन रंधीर है ग्रेट। मेरी शुभकामनाएं हमेसा उसके साथ है।
मिस करता हूं कानपुर को
बड़े समय बाद आज मौका मिला है लिखने का। इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही की ब्लॉग में हिन्दी में टाइपिंग में कुछ परेशानी हो रही थी। पर आज वो समस्या नही दिख रही। बहरहाल लम्बे समय के बाद लिख रहा हूँ, इसलिए काफी कुछ बदला हुआ होगा। कानपुर शहर दो महीने पहले छोड़ चुका हूं और अब चंडीगढ़ में हूं। डेढ़ साल तक आयी नेक्स्ट में काम करने के बाद चंडीगढ़ से नए लांच हुए हिंदुस्तान में बतौर चीफ कॉपी एडिटर काम कर रहा हूं। कानपुर याद आता है। वह शहर जहां मैं जब पहली बार आया था, तो ऐसा लग रहा था, जैसे डेल्ही से कानपुर आने का मेरा निर्णय गलत था, लेकिन बहुत जल्दी ही कानपुर में रच-बस गया और वहां के लोग, वहां के बाजार और सच कहूं तो कानपुर के हर सच से प्यार हो गया था। आज चंडीगढ़ में अपने कानपुर को बहुत मिस करता हूं। लोग कहते हैं की चंडीगढ़ सिटी ब्यूटीफुल है और यहां आने वाला यहीं का हो जाता है. बहरहाल मुझे अब तक ऐसा कोई एह्सश नहीं हुआ है। हालांकि इसकी वजह यह भी हो सकती है की शहर में रहते हुए भी इस शहर को दूर से भी पूरी तरह देख नहीं पाया हूं। लोकल खबरों के बीच शहर के बारे में जाना तो जा सकता है, लेकिन उसे महसूस नहीं किया जा सकता। कानपुर जैसा ही इस शहर को भी महसूस करना चाहता हूं। आयी नेक्स्ट में फीचर टीम के सभी सदस्यों को बहुत मिस करता हूं। अगले पोस्ट में मेरी टीम के सदस्यों का परिचय, जिन सबको मैं बहुत मिस करता हूँ।
सौरभ सुमन