मंगलवार, 19 अगस्त 2008

आज दुआ कीजिए

बीजिंग ओलंपिक में आज विजेंद्र और जीतेंद्र क्वार्टर फाइनल मुकाबले में क्रमशः इक्वाडोर के कार्लोस गोजोरा और रूस के जेओर्जी बालिक्शन से भिड़ेंगे। भिवानी के इन दोनों रणबांकुरों के लिए आज की जीत ही पदक का सपना साकार कर सकती है। इसलिए इनके लिए दुआ की जानी चाहिए। जितेंद्र का मैच शाम ०४ बजकर ४६ मिनट पर और विजेंद्र का मैच शाम ६ बजकर १६ मिनट पर होगा।

रविवार, 15 जून 2008

मृणाल पांडेय जी के साथ एक दिन


शायद ही मैं इस दिन को भूल पाऊं, क्योंकि इस दिन हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक मृणाल पांडेय जी के साथ हमलोगों को काफी समय बिताने का अवसर मिला। केवल इसलिए यह यादगार नहीं था, क्योंकि वह हिन्दुस्तान की प्रधान संपादक हैं, बलि्क इसलिए क्योंकि एक शखि्सयत और लेखिका के रूप में मैं उन्हें बरसों से पढ़ते भी आ रहा था। पहली बार जब उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो उनसे प्रभावित हुए बिना नही रही सका। अब तक लोगों को कहते सुना था और जब सामने मुलाकात हुई, तो महसूस भी किया कि लोग सही कहते थे। पहली बार मिलने के बाद से ही मेरी इच्छा थी कि मैं उनके साथ समय बिताऊं। वह समय भी जल्दी ही मिल गया। शनिवार को वह चंडीगढ़ में थीं। शाम करीब ४ बजे वह मोहाली में हिन्दुस्तान टाइम्स के ऑफिस पहुंची। मीटिंग में उन्होंने जिस सरलता से अपनी बातें रखीं और जिस मजबूती से अपने सुझाव दिए, उससे लग रहा था कि उनके सुझाव पर अभी से ही अमल कर दिया जाए। भविष्य में एचटी मीडिया की योजनाएं और वतॆमान में मीडिया के स्वरूप पर चचाॆ के बाद उन्होंने सभी से कहा कि अगर आपकी कुछ समस्याएं हों, तो हमें बताएं। कांफ्रेंस रूम से बाहर हमलोग अपने सेक्शन में पहुंचें, तो मृणाल जी ने सभी को अपने सिग्नेचर वाली डायरी भेंट की। रात में मृणाल जी के साथ ही लेकव्यू क्लब में शानदार पाटीॆ और कायॆक्रम का भी आयोजन था। संपादक अकू श्रीवास्तव जी ने पहले ही हम सभी से कह दिया था कि एडिशन ९ बजे तक छोड़ देना है। ऐसा हुआ भी। ९ बजे ही एडिशन छूटने के कारण संपादक जी ने कहा भी कि मतलब आप सब समय पर एडिशन छोड़ सकते हो, तो फिर और दिन लेट क्यों होते हो? वहां से सीधे हम लोग लेकव्यू क्लब पहुंचे। डीजे के साथ ही जैसा कि हर बड़े क्लबों में होता है, वेज-नॉनवेज की पूरी वैराइटी थी। पीने वालों के लिए भी पूरी व्यवस्था थी। मृणाल जी वहां मौजूद थीं। डीजे की धुन पर हम सभी के साथ मृणाल जी ने भी डांस किया। ११ बजे पाटीॆ अपने शबाब पर थी। केक कट चुके थे और सभी को गिफ्ट भी मिल चुका था। लाइट्स और म्यूजिक ऑफ होने के बाद कैंडल लाइट जलाई गई। हिन्दुस्तान टीम के कलाकार सहकर्मियों ने अपनी-अपनी कलाओं के नमूने पेश किए। कायॆक्रम की एंकरिंग की कमान मेरे हाथ थी। सो मेरे पास बेहतर मौका था अपनी कविताएं सुनाने का। बीच-बीच में मैंने कुछ कविताएं भी सुनाईं। कायॆक्रम ठहाकों और चूटीली प्रतिक्रियाओं के बीच रंग में था। इसके बाद खाने का दौर शुरू हुआ। तब तक रात के एक बजे चुके थे। मृणाल जी ने हम सब से विदा लीं और बेस्ट ऑफ लक कह कर चली गईं। इसके बाद धीरे-धीरे सभी लोग निकलते गए। हालांकि कुछ पीने-पिलाने वाले साथी कितनी देर रुकें, यह पता नहीं, क्योंकि अगले दिन ४ लोग छुट्टी पर थे। अगली पोस्ट में पढ़ें हमारे संपादक अकु श्रीवास्तव जी के बारे में।

गुरुवार, 12 जून 2008

हमारे कन्हैया जी (२)

विश्वस्त सूत्रों से मालूम हुआ है कि कन्हैया जी इन दिनों गोरा बनने के लिए तन-मन-धन से जुटे हैं। टीवी पर जितने भी तरह के फेयरनेस क्रीम के विग्यापन आते हैं, वह सब उनके घर में और ऑफिस में उनके ड्रावर में देखे जा सकते हैं। हालांकि फेयरनेस क्रीम का यूज करना उनके लिए कोई नई बात नहीं है, इसके पहले भी वह क्रीम यूज करते रहे हैं, लेकिन पहले मांग कर काम चलाते थे। बाद में जिनसे मांगा करते थे, उन्होंने लाना छो़ड़ दिया, क्योंकि उनके क्रीम की खपत तो बढ़ी ही थी, साथ ही अपनी क्रीम पर से उनका भरोसा भी उठने लगा था। फिर किसी ने सलाह दी कि खुद से खरीद कर क्रीम लगाने से ही क्रीम का असर आता है, सो वह तुरंत मॉल पहुंच गए और क्रीम ले आए। सुबह, दोपहर, शाम और रात सभी समय के लिए उनके पास अलग-अलग क्रीम है, जो वह लगाते हैं। शायद उनका विश्लास है कि कोई तो असर करेगी। ये गोरा बनने का भूत उन पर किस तरह सवार हुआ, इसकी जांच की तो पता चला कि हाल ही में उनके पड़ोस में तीन लड़कियां आई हैं, उन्हें ही रिझाने के लिए वह क्रीम का यूज कर रहे हैं। उनका नाम पता न होने के कारण कन्हैया जी ने उन्हें नंबर दे दिया है। नंबर १, नंबर २, नंबर ३। कंप्यूटर को भी उन्होंने घर पर इस तरह रखा है कि पड़ोसी की खिड़की कंप्यूटर चेयर पर बैठने से सामने दिखे। कंप्यूटर पर भी उन्हें मेरे सामने वाली खिड़की में...गाना सुनना आजकल खूब पसंद आ रहा है। कल तक कन्हैया जी कहते थे कि जिंदगी में कुछ नहीं रखा है, लेकिन आजकल वह अपने दोस्तों से कहते हैं कि जिंदगी में काफी रंग है, बस नजर का फेर है।

गुरुवार, 5 जून 2008

हमारे कन्हैया जी

एक हैं हमारे कन्हैया जी। कन्हैया जी जैसे शखि्सयत आजकल लुप्तप्राय हैं। मेरी खुशनसीबी (?) कि मुझे उनके साथ दो संस्थानों में काम करने का मौका मिला। एक प्रभात खबर दिल्ली और दूसरा आई-नेक्स्ट कानपुर। कन्हैया जी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह बहुत कूल हैं। अखबार के दफ्तरों में जहां पन्ने छोड़ने के समय काफी अफरा-तफरी का माहौल होता है। कन्हैया जी को मैने हमेशा कूल देखा है। उन्हें गुस्सा भी आता है तो उससे वह अपने ही तरीके से निपटते हैं। बिल्कुल मस्त और अजब-गजब चीजों के शौकीन। एक बार उन्हें पैसों की सख्त जरूरत थी। कहीं से उन्होंने २००० रुपए जुगाड़ किए और उसी दिन ९०० रुपए का चश्मा ले आए। वैसे मैंने कभी उन्हें चश्मा लगाते नहीं देखा। कानपुर में तो कभी मौका नहीं मिला, लेकिन दिल्ली में उनके हाथों का खाना जरूर खाया था। मिक्स वेजिटेबल मैंने जैसा उनके हाथों का खाया है, वैसा कभी नहीं खाया। अंदर से बेहद सीधे, लेकिन ऊपर से उतने ही सख्त और प्रोफेशनल दिखने वाले कन्हैया जी को काम के बीच में मुंगफली खाने का अजीब शौक है। अक्सर पेज देखते वक्त जब उनकी जरूरत होती और पता करता तो पता चलता कि वह तो नीचे गए हैं मुंगफली खाने। अकेले खाना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। हालांकि अगर कोई दूसरा खचॆ करे, तो वह दो-तीन लोगों के साथ भी खा लेते हैं। पार्टी से परहेज करते हैं। एक बार बड़ी मुशि्कल से उनका फरजी बथॆडे हमलोगों ने मनाया तो उन्होंने खचॆ किया था। अपने में मस्त इतना रहते हैं कि शायद ही कभी अपने दोस्तों को भी याद किया होगा। कोई फोन नहीं, कोई मेल नहीं। खाली समय में इंटरनेट पर नई-नई चीजें ढूंढ़ना उन्हें अच्छा लगता है। शादी हो गई है, दो बच्चे भी हैं, लेकिन अभी भी उनके इनबॉक्स में मेट्रीमोनियल साइट से ढेरों ऑफर पड़े हैं। फुसॆत के लम्हों में उन प्रोफाइल को चेक करते हुए भी उन्हें अक्सर काम खत्म होने के बाद देखा जा सकता है। इनकी एक और खासियत यह है कि बच्चों की तरह अगर इन्हें चिढा़या जाए, तो बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं। मैं अक्सर उन्हें चिढाया करता था और फिर मैं और रंधीर उनकी बातों के मजे लिया करते थे। वैसे व्यक्तिगत जीवन में कई मामलों में वह रंधीर से सलाह करने के बाद ही कोई कदम उठाते हैं। कन्हैया जी उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जो खुद ही सीखने का जज्बा रखते हैं और खुद ही कई नई चीजें कि्रएट भी करते हैं। डिजाइनिंग बहुत अच्छी करते हैं। हां, नई डिजाइनों के लिए जब तक उन्हें प्रेरित न किया जाए, वह पुराने से ही काम चलाते हैं। उनके साथ काम करते हुए कई बार तो मुझे ऐसा भी लगा कि कन्हैया जी अपनी योग्यता का महज ३०-४० फीसदी ही देते हैं। अगर उन्हें प्रेरणा मिले, तो मुझे कोई शक नहीं कि वह बहुत अच्छा कर सकते हैं, शायद सबसे अच्छा।

शुक्रवार, 30 मई 2008

...और मैं पास हो गया

नीचे जाकर मैंने दौड़कर पेपर उठाया। पहले पेज पर अंदर के पेज पर आनेवाले रिजल्ट का उल्लेख था। मैंने तुरंत वह पन्ना पलटा। और जल्दी-जल्दी अपने स्कूल का नाम ढूंढ़ने लगा। वहां किसी स्कूल का नाम नहीं था। असल में रिजल्ट स्कूल कोड के आधार पर दिया गया था। कोड मुझे याद नहीं था। मैं दौड़कर एडमिट काडॆ ढूंढ़ने गया। तब तक लैंडलाइन पर मेरे मित्र अमित का फोन आ गया। उसने बताया कि मैं सेकेंड डिविजन से पास हो गया। फिर भी मुझे तसल्ली नहीं थी। मैंने खुद से रिजल्ट देखा। पहली बार संतुषि्ट हुई कि चलो फेल नहीं हुआ, लेकिन यह मानव स्वभाव के अनुरूप तुरंत यह सोचकर असंतुष्ट हो गया कि मेरा फस्टॆ डिविजन नहीं आया। शायद फस्टॆ आता तो टॉपर होने के बारे में सोचता। बहरहाल मैं पास हो चुका था और महज ३ अंकों से मेरा फस्टॆ डिविजन छूटा था। अब बारी थी सपने बुनने की। एडमिशन के पहले कभी आईएएस, कभी किसी बड़ी कंपनी का मैनेजर तो कभी खुद को आईपीएस को रूप में सोचना तब बड़ा अच्छा लगता था। तब यह ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि पत्रकार बनूंगा। हर सोच में सिफॆ और सिफॆ पॉजिटिव चीजें। कभी यह नहीं सोचा कि वहां तक पहुंचने में किन मुशि्कल रास्तों से होकर गुजरना पड़ेगा। सब कुछ बहुत आसान लगता था। ऐसा लगता था, जैसे मैंने जो सोचा वह मुझे मिल गया। बस मुझे सोचना सही तरीके से था। वाकई सुखद अनुभव था। पत्रकारिता मेरा शौक था और मैं उसे शौक तक ही रखना चाहता था, क्योंकि शौक जब प्रोफेशन बन जाता है, तो वह शौक नहीं रह जाता। बहरहाल, किसी अच्छे बड़े कॉलेज में दाखिला लेने का मन बनाया, जो पूरा न हो सका। प्लस टू कॉमसॆ से करने के बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़कर उस इच्छा को पूरा किया।

मंगलवार, 27 मई 2008

वो दसवीं के रिजल्ट का इंतज़ार

आज सीबीएसई दसवीं का रिजल्ट आ रहा है। आज जब रिजल्ट को लेकर कल की प्लानिंग कर रहा था, तो मुझे वह दिन याद आ गया, जब मुझे अपने बोडॆ के रिजल्ट का इंतजार था। एग्जाम के बाद रिजल्ट आने तक करीब एक महीने का समय था। इस दौरान बेहतर रिजल्ट के लिए एग्जाम में लिखे गए सवालों के जवाब का आकलन करने के बजाय मैं पूजा और मंदिरों पर ज्यादा ध्यान देने लगा था। रांची का शायद ही कोई मंदिर बचा हो, जहां मैंने पूजा-अचॆना न की हो। वह १९९५ का समय था और उस साल नया सिलेबस इंट्रोड्यूज हुआ था। इसलिए डर ज्यादा था। रिजल्ट का दिन मुझे आज भी याद है। रात भर मुझे नींद नहीं आई, क्योंकि अगले दिन मेरे भविष्य का फैसला होना था। वैसे मैं इस बात को लेकर कम परेशान था कि रिजल्ट खराब होने पर मेरा भविष्य कैसा होगा, इस बात को लेकर ज्यादा परेशान था कि अगर फेल हो गया तो मेरे साथी मुझे क्या कहेंगे। इसकी वजह यह थी कि १५०० बच्चों के उस मिशनरी स्कूल का न केवल मैं स्कूल लीडर था, बलि्क कई तरह के कार्यक्रमों मैं स्कूल का प्रतिनिधित्व कर चुका था। टीचसॆ का भी मैं प्यारा था। इतना प्यारा कि एक बार जब मैं बीमार पड़ा तो स्कूल के तकरीबन सभी टीचसॆ छुट्टी के बाद मेरा हालचाल लेने मेरे पहुंच गए थे। उनके प्यार से मैं अभिभुत था। मैं उन्हें किसी भी तरह निराश नहीं करना चाहता था। रात में ही मैने प्लानिंग कर ली थी कि अगर फेल हो गया, तो मुझे क्या करना है। इसलिए मैं निशि्चंत था। फिर भी रात भर दिमाग में कई तरह की सीन घूम रही थी। कभी लग रहा था कि मैं टॉप कर गया हूं और सभी मुझे बधाई दे रहे हैं। कभी लगता कि मैं फेल हो गया हूं और लड़के मुझसे कह रहे हैं कि हो गई तुम्हारी लीडरई खत्म। कब नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया, मुझे पता ही नहीं चला। सपने में फिर वही सब बातें। नींद खुली तो देखा अभी तो सुबह के चार ही बज रहे हैं। उसके बाद इधर-उधर अपने कमरे में ही टहलता रहा। मैं घर के लोगों को भी यह एहसास नहीं दिलाना चाहता था कि मैं रिजल्ट को लेकर परेशान हूं। बहरहाल, किसी तरह ६ भी बज गए और न्यूजपेपर फेंकने की आवाज सुनाई दी। मैं दौड़कर नीचे गया....शेष अगले पोस्ट में.

सोमवार, 26 मई 2008

अनिल सिन्हा जीः जाना एक सोच का

दोपहर एक बजे घर से ऑफिस के लिए निकला ही था कि कानपुर आई-नेक्स्ट के एक साथी का फोन आया कि अनिल सिन्हा नहीं रहे। मैं अवाक था, मुझे ऐसी खबर की उम्मीद नहीं थी। लगा जैसे कल की ही तो बात थी, जब मैं उनसे मिला था। अनिल सिन्हा जी को मैं मार्केटिंग कम्युनिकेशन हेड या डिजाइनर नहीं मानता था। मैं उन्हें एक सोच मानता था। एक ऐसी जिंदादिल सोच जो आज की जरूरत है। पहली बार उनसे मेरा सामना दिसंबर २००७ में हुआ था। मैं उसे किसी पेज की डिजाइनिंग के विषय पर बात करने गया था। हालांकि तब मैं उन्हें अच्छी तरह जानता भी नहीं था, लेकिन जल्द ही उन्हें करीब से जानने का मौका मिला। अगस्त २००७ में कानपुर के नए ऑफिस में उनकी सीट बिल्कुल सामने थी। अक्सर कैफेटेरिया जाते वक्त उनके डेस्क से ही गुजरता था। शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो, जब उन्होंने मेरे साथ कोई नया आइडिया या कोई नया कंसेप्ट शेयर न किया हो। उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, लेकिन जब मुझसे बातें करते तो २८ साल के जवान बन जाते थे। उनका व्यकि्त्तव ऐसा था कि ऑफिस का कोई भी सहयोगी उनसे किसी भी तरह की बातें कर लेता था। बेहद मजाकिया किस्म के इंसान और तुरंत सटीक टिप्पणी करने की उनकी आदत से कई बार हम सब अवाक रह जाते थे। उनके पास वाकई आइडियाज की खान होती थी। हमेशा नए प्रयोग करना उन्हें अच्छा लगता था। उनसे जुड़े लोग आज भी मानते हैं कि जिस पेज पर उनका हाथ लग जाता था, उसकी खूबसूरती बढ़ जाती थी। कभी-कभी मैं उनसे कहता था कि सर आपकी सोच समय से काफी आगे है। आप २०२० के रीडसॆ को ध्यान में रखते हैं। तब वह कहते थे कि समय से हमेशा आगे ही सोचना चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी काम के परफेक्शन के मामले में वह कोई कोताही नहीं बरतते थे। ले-आउट और डिजाइनिंग में एक एमएम के मिस्टेक को भी वह तुरंत पकड़ लेते थे। उनके पास बैठने का मतलब था कि आप कुछ सीखेंगे ही। एक साल पहले उनके साथ कानपुर से लखनऊ जा रहा था। रास्ते में उनसे कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ फैमिली की बातें और प्रोफेशनल करियर की बातों के अलावा उन्हें मुझे रंगों के प्रयोग के बारे में भी काफी बातें बताईं। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लेना। अंग्रेजी बैंड के बारे में उन्हें जितनी जानकारी थी, उतनी ही जानकारी हिन्दी गानों की भी थी। वह मुझसे कहा करते थे कि दुनिया की कोई चीज ऐसी नहीं है, जो इंटरनेट पर न मिले। फीचर के पन्नों से उनका खास लगाव था। उनके सहयोग से तब हमलोगों ने आई-नेकेस्ट के लिए कई विशेष पुलआउट भी निकाले थे। मुझे याद है उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि सौरभ जहां भी रहो, वहां के लिए इतना और ऐसा काम करने की कोशिश करो, कि तुम्हें हमेशा याद रखा जाए। आज वाकई उनका जाना दिल को काफी दुखी कर गया। बार-बार उनकी हंसी, उनका मजाक और हर दिन सुबह यह कहना कि सौरभ आज पाटीॆ का क्या प्रोग्राम है, दिमाग में गूंज रहा हो। कानपुर से बहुत दूर हूं, लेकिन महसूस कर रहा हूं कि कैसे उनका कंप्यूटर और उनकी कुसीॆ खाली होगी। मुझे ही नहीं, सभी को बहुत याद आएंगे अनिल सिन्हा जी।

रिश्तों को भरपूर जिएं

एक बार फिर यह कहानी भी मानवीय संवेदनाओं के हत्या की कहानी थी। एक भरोसा को तोड़ने का सिलसिला था। पिछले दिनों नोएडा के आरुषि मामले में बाप पर कत्ल का आरोप और सिटी ब्यूटीफुल (चंडीगढ़) में अनुराधा हत्याकांड में पति बलिजंदर पर पत्नी अनुराधा को मारने का आरोप। दोनों ही मामलों में काफी समानता है। दोनों ही हत्याकांड में अपनों ने हत्या की। ये इतने अपने थे कि कत्ल से पहले दोनों ही मामले में कभी किसी ने सोचा भी न होगा, ऐसा हो सकता है। महिलाएं आज सेफ नहीं है, उनके लिए चारों तरफ खतरा ही है, जैसी बातें कर भले ही हम इस मामले पर आगे बात करने की जहमत न उठाएं, लेकिन इस सच्चाई से भी हम किनारा नहीं कर सकते कि दोनों ही मामलों में हत्या का कारण भी महिलाएं थी। अनुराधा हत्याकांड में पति बलिजंदर का नूर नाम की मॉडल से संबंध थे और वह उससे शादी करना चाहता था, तो आरुषि हत्याकांड में हत्यारे डॉक्टर के किसी महिला से अवैध संबंध थे। मामला यहां महिलाओं की सेफ्टी का नहीं है। यह मामला है तेजी से बदलती हमारी लाइफस्टाइल का, हमारी असि्थरता का और सब कुछ पा लेने के लिए कुछ भी कर गुजरने की जिद का। इस पूरे मामले में हमने जो सबसे बड़ी और महत्वपूणॆ चीज खोई है वह है विश्वास और रिश्ते। इन दोनों की अहमियत आज हमारे लिए खत्म होती लग रही हैं। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है, जब हमारे सामने कोई परेशानी होती है या हम किसी समस्या में होते हैं, तो सबसे पहले हमें अपनों की ही याद आती है। कहीं ऐसा न हो कि इस अंधी दौड़ में हम भी शामिल हो जाएं और फिर जरूरत पड़ने पर जब हम अपनों को आवाज लगाएं, तो दूर-दूर तक कहीं रोशनी की एक किरण तक नजर न आए। उस वक्त के इंतजार से बेहतर है हम संभल जाएं और उन रिश्तों को भरपूर जिएं, जो ईश्वर ने हमारे लिए या हमने दिल से बनाए हैं।

मंगलवार, 20 मई 2008

अनुभव चंडीगढ़ का-१

सौरभ जी, धन्यवाद, शायद आप से मेरी मुलाकात दिल्ली मे दैनिक हिंदुस्तान के आफिस मे हुई थी। अखबारी दुनिया की कुछ बातें आप के साथ शेयर हुई। कुछ पुराने दोस्तों का समाचार भी मिला। आपको कानपूर जाना जरुरी था। सो जल्दी निकल पड़े। लेकिन तय हो चुका था की अब साथ काम करना है। मुलाकात हिंदुस्तान के सबसे खूबसूरत शहर चंडीगढ़ में होगी। सभी साथियन को जल्दी ही चंडीगढ़ बुला लिया गया। सो होली बीती नहीं की पूरे जोशोखरओश से सिटीब्यूटीफूल पहुच गए। सभी के सामने कड़ी चुनौती थी। तैयारी शुरू हुई और २१ अप्रिल को दैनिक हिंदुस्तान सोहनी सिटी के साथ सिटीब्यूटीफूल मे रहने वालों के सामने था। अब बात करते है इस शहर की...
वैसे तो चंडीगढ़ को हिंदुस्तान का सबसे सुंदर शहर कहा जाता है। मुझे भी यह शहर पंसंद आया। लेकिन सच कहूँ तो दिल से नही, मेरे साथ आये कई सथिओं ने भी कहा। इसकी वजह भी थी अपनी या और साथियन की जिंदगी कभी इतना व्यवथित नही रहा जितना यह शहर है। इस लिए शुरुआती मुश्किलो से जूझना पड़ा। सच कहता हूँ दोस्तो, वैसे शहर मैं आपका भी मन नही लग सकता जहा चाय पीनी हो तो मीलों चलाना हो।

दोस्तो रात के तीन बज चुके है ड्यूटी भी करनी है सो फ़िर मिलेगे चंडीगढ़ की यादों के साथ....

गुड लक

गंगेश श्रीवास्तव

अब हिंदुस्तान की बारी है (२)

जब मैं स्कूल में था टू अक्सर सोचा करता था की कभी मौका मिले टू पंजाब के गावों में कुछ महीने जरूर बिताऊंगा। टैब शायद मुझे यह भी नही पता था की पत्रकारिता को अपना कैरेअर बनाऊगा और रांची, डेल्ही, कानपूर, लखनऊ, चंडीगढ़ जैसी जगह घूमने का मौका मिलेगा। टैब शायद फिल्मों में पंजाब के गावों की हरियाली और खूबसूरती बहुत अच्छी लगती थी। आज वाकई जब जब चंडीगढ़ आया , तो लगा जैसे वर्षों पुराना सपना पूरा होने वाला है। शुरवात में तो यहां की शांति और व्यवस्था मेरे लिए एक बिल्कुल नया अनुभव था। पंजाब की सभ्यता और संस्कृति वाकई काफी समृद्ध है। चंडीगढ़ और आसपास के गांवों को देखकर यही लगता है कि मैं अपने सपनों के गांव से बेहद करीब हूं। साफ-सुथरी जगह, हरियाली और सब कुछ एक सिस्टम के तहत। कितना व्यविस्थत है चंडीगढ़। पहली बार इतनी विविधता के बीच काम कर रहा हूं। यहां हिन्दुस्तान की टीम में लोग पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों से हैं। हरियाणा की भाषा शुरू से ही मुझे आकर्षित करती है। यहां हरियाणवी भाईयों के साथ काम करना वाकई अद्भुत अनुभव है। हमारे न्यूज एडीटर सुधीर राघव जी हरियाणा के हैं। आजकल वह भोजपुरी भाषा सीख रहे हैं। हमारे डिजाइनर ब्रजेश झा, जो दैनिक जागरण कानपुर से हैं, वो हरियणावी सीख रहे हैं। संपादक जी और राघव जी दोनों ही पंजाबी और हरियाणवी के अच्छे जानकार हैं। इन सबके बीच दिन काफी अच्छा गुजर रहा है। बाकी साथी भी मस्ती में काम करने के आदी रहे हैं, सो यहां भी टीम का हर सदस्य काम को पूरे इंज्वाय के साथ करता है। इनमें से कई लोग ऐसे हैं, जो इसके पहले एक या दो बार एक साथ काम कर चुके हैं, अतः पहले से भी परिचित हैं। श्रुवात का जो डर था, वह अब धीरे-धीरे जा रहा है और चंडीगढ़ अच्छा लगने लगा है।

अब हिंदुस्तान की बारी है (१)

अब हिंदुस्तान की बारी है। हिंदुस्तान का स्लोगन यही है। बात चाहे हिंदुस्तान के मार्केट की हो या मेरी। बारी तो हिंदुस्तान की ही है। २८ माचॆ को जब पहली बार यहां है था, तो मुझे डेल्ही की याद आ गयी। रांची से जब पहली डेल्ही गया था, तो प्रभात खबर का ऑफिस घाजिअबाद में बनाया गया था। वह भी एक नयी शुरुवात थी। डेल्ही में तब हमारे पास एक भी कंप्यूटर नहीं था। सारा कुछ हम दो लोगों के ही जिम्मे था। मैं और रंजन श्रीवास्तव फिलहाल वह डेल्ही में लाइव एम मीडिया के निदेशक हैं। यह कंपनी भी उन्हीं की है। हम दोनों को ही खरीदारी से लेकर डेल्ही में ऑफिस करने और टीम बनाने का काम पूरा करना था। एक साल के अंदर ही हमने डेल्ही में एक शानदार ऑफिस बना लिया था। तब १७ लोगों की टीम भी हो गई थी। प्रभात खबर का सारा फीचर डेल्ही शिफ्ट कर दिया गया। इसके अतिरिक्त खबरों का भी काम होता था. दो तेजतर्रार रिपोर्टर प्रवीण कुमार झा और अंजनी ने प्रभात खबर को कई breaking न्यूज दी। बहरहाल डेल्ही की याद इसिलए aayee ki जब मैं पहली बार गजिअबाद पहुंचा, तो वहां के वीराने को देखकर मैं परेशान हो गया। मुझे लगा शायद ही मैं यहां काम कर पाऊं। lekin धीरे-धीरे सब कुछ अपना सा लगने लगा। चंडीगढ़ में भी शुरुवात में सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा था। यहां की शान्ति mujhe सन्नाटा लग रहीथी, lekin अब सबकुछ bahut alag hai। baki अगले post mein.

शनिवार, 10 मई 2008

फिट है राहुल

आई नेक्स्ट जहां मैंने लगभग डेढ़ साल बिताए और बहुत कुछ सीखा। कानपुर से इतनी दूर चंडीगढ़ आने के बाद भी कुछ लोग भूलते नहीं हैं। इत्तफाक ऐसा कि चंडीगढ़ में भी लांचिंग के दौरान ही आना हुआ। लांचिंग के समय की समस्याएं और मुसीबतों से वाकिफ था, सो पहले से ही बिना छुट्टी के कड़ी मेहनत का प्लान बना चुका था।

छोटे शहर के लोगों की भावनाएं बहुत बड़ी होती हैं। कानपुर के लोगों की तरह। मुझे वह समय भी याद है, जब दिल्ली में ९ साल रहने के बाद कानपुर आया था। तब दिल्ली तो याद aa रही थी, लेकिन वहां के लोग नहीं। शायद इसकी वजह यह भी थी दिल्ली के मित्रों ने भी भूलने में ज्यादा वक्त नहीं लिया। बहरहाल, मैं बात कर रहा था कानपुर की।राहुल है उसका नाम। पहली बार मिला तो लगा कि अाई नेक्स्ट के टेस्ट के लिहाज से बिल्कुल फिट है। वैसे मेरा अंदाजा भी सही ही निकला। सबसे ज्यादा इस बात की खुशी होती है कि मैंने अपनी टीम के लोगों से जितनी उम्मीद की थी वह सब उस पर सभी खरे उतरे हैं। राहुल जब पहली बार काम पर आया था, तभी उसने मुझसे कहा था कि वह मुझे अगले दिन अफगानी चिकन खिलाएगा। डेढ़ साल हो गए और मैं चंडीगढ़ आ गया lएकं उसने मुझे अफगानी चिकन नहीं खिलाया। अपने काम में उस्ताद राहुल ने बहुत जल्द ख़ुद को साबित कर दिया। आज कानपूर में जिनको सबसे ज्यादा मिस करता हूँ उनमे से एक राहुल भी हैं। उसने हमेसा मुझे यही एह्सश कराया की वो मेरे साथ है। राहुल के बरे में फिर कभी।

मंगलवार, 6 मई 2008

रणधीर के बहाने कुछ बातें

रंधीर के बहाने बहुत कुछ कहा जा सकता है। वैसे नाम उसका रजनीश है, लेकिन शायद ही मैंने उसे कभी रजनीश कहा हो। गलत कहते हैं लोग की लोगों में अब संवेदनाएं नहीं रही। बेहद भावुक किस्म के रंधीर ने शायद ही कभी किसी का बुरा चाहा हो। उसके पास जितना कुछ भी है, वह उससे ज्यादा देना चाहता है। अपने सीमित संसाधन में भी वह हर किसी के लिए बहुत कुछ करना चाहता है। आशार्य होता है की aअज के जमाने में किसी की खुशी के लिए भी कोई इतना सैक्रीफाइज कर सकता है। मेहनत से कभी वह पीछे नहीं रहा। यही वजह थी की बहुत कम समय में ही उसने मनोरंजन की दुनिया पर अच्छी पकड़ बना ली। अपने आसपास के वातावरण में खुद को कैसे ढाला जाए यह रंधीर से सीखा जा सकता है। बुरे से बुरे स्तिथि में भी उसने साथ वालों को ढांढस ही बंधाया है। अक्सर मैं उसे समझाता था की अपने बारे में भी सोचना उतना ही जरूरी है। किसी तरह की औपचारिकता पर उसे विश्वाश नहीं।सबसे खास बात यह kइ जिस भी काम को हाथ में लेता है, उसे अपनी तरफ से बेस्ट देने की कोशिश करता है। काम किसी तरह हो जाए पर उसे विश्वाश नहीं, हमेशा अपनी तरफ से बेस्ट देने पर ही उसे विश्वाश है। दुख होता है रंधीर जैसे लोगों को कोई समझ नहीं पाता और कभी-कभी कोफ्त होती है रंधीर जैसे लोगों से भी, की क्यों नहीं बदलते वह अपने आप को। आयी -नेक्स्ट में जितने भी दिन रहा, कभी उसने किसी काम के लिए न नहीं किया।कभी-कभी बेस्ट करने की कोशिश में पन्ने लेट भी करता था। ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत गुस्सा भी आता था, लेकिन रंधीर है ग्रेट। मेरी शुभकामनाएं हमेसा उसके साथ है।

मिस करता हूं कानपुर को

बड़े समय बाद आज मौका मिला है लिखने का। इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही की ब्लॉग में हिन्दी में टाइपिंग में कुछ परेशानी हो रही थी। पर आज वो समस्या नही दिख रही। बहरहाल लम्बे समय के बाद लिख रहा हूँ, इसलिए काफी कुछ बदला हुआ होगा। कानपुर शहर दो महीने पहले छोड़ चुका हूं और अब चंडीगढ़ में हूं। डेढ़ साल तक आयी नेक्स्ट में काम करने के बाद चंडीगढ़ से नए लांच हुए हिंदुस्तान में बतौर चीफ कॉपी एडिटर काम कर रहा हूं। कानपुर याद आता है। वह शहर जहां मैं जब पहली बार आया था, तो ऐसा लग रहा था, जैसे डेल्ही से कानपुर आने का मेरा निर्णय गलत था, लेकिन बहुत जल्दी ही कानपुर में रच-बस गया और वहां के लोग, वहां के बाजार और सच कहूं तो कानपुर के हर सच से प्यार हो गया था। आज चंडीगढ़ में अपने कानपुर को बहुत मिस करता हूं। लोग कहते हैं की चंडीगढ़ सिटी ब्यूटीफुल है और यहां आने वाला यहीं का हो जाता है. बहरहाल मुझे अब तक ऐसा कोई एह्सश नहीं हुआ है। हालांकि इसकी वजह यह भी हो सकती है की शहर में रहते हुए भी इस शहर को दूर से भी पूरी तरह देख नहीं पाया हूं। लोकल खबरों के बीच शहर के बारे में जाना तो जा सकता है, लेकिन उसे महसूस नहीं किया जा सकता। कानपुर जैसा ही इस शहर को भी महसूस करना चाहता हूं। आयी नेक्स्ट में फीचर टीम के सभी सदस्यों को बहुत मिस करता हूं। अगले पोस्ट में मेरी टीम के सदस्यों का परिचय, जिन सबको मैं बहुत मिस करता हूँ।

सौरभ सुमन