अमूमन मैं पीछे मुड़कर देखना पसंद नहीं करता फिर भी सौरव से वादा किया था सो आप लोगों को अपने कैंपस के दिनों के बारे मैं बताता हूँ । मेरे कैंपस के दिन यूँ कोई बहुत खास नहीं थे । इनमें कुछ दोस्त थे चंद सिगरेटें थीं और था एक बेहद आवारा मिजाज़ दिल । उन दिनों मेरे दिन की शुरुआत कोई 11-12 बजे होती थी । मैं रूम पर अकेला होता था चाय पीकर कोलेज की और खरामा खरामा बढता । रास्ते मैं कोई मिल गया तो गंतव्य बदल भी जाता था । सबसे पहले कैंटीन पहुँचता था और कोई जाना पहचाना चेहरा दिखाई दे गया तो उसी टेबल को अपना निशाना बनाता । यह वो दौर था जब मैं एक दिन मैं कम से कम 2 पैकेट सिगरेट पी जाता था । दोस्तो से गप्पबाजी और विवि की राजनीति कई दाव पेंच तय करते हुये 7-8 बज जाते थे । इसके बाद भारत भवन या रवींद्र भवन की और रुख करते और भोपाल के साहित्यिक सांस्कृतिक माहौल मैं रमे रहते थे । दरअसल उन दिनों यही वह दुनिया थी जो हम लोगों को राह दिखाती थी । विवि के सांस्कृतिक माहौल को बनाए रखने की ताकत भी यहीं से मिलती थी । हबीब तनवीर, राजेश जोशी, विजय बहादुर सिंह, कमला प्रसाद, नवल शुक्ल, बनाफर चंद्र, इरफान सौरव से लेकर रामशरण जोशी तक फैले इस माहौल में हमने अपने रास्ते अख्तियार किये और अपनी पूरी लापरवाही के साथ कैंपस में पढ़ाई की । आज इतना ही ।
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बुधवार, 20 जून 2007
नई जीन्स और नई गिटार
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