सौरभ जी का नया मंच कैम्पस, एक सराहनीय प्रयास है। जहा हम अपने भूलें बिसरे दिनों को याद कर सकते हैं। वोह दिन जो अब हमे तब याद आते हैं जब हम किसी स्कूली बस या रिक्से को देखते हैं। हम सालों पहले अपने बचपन में लौटते हैं, तो हम ऊपर वाले को ख़ूब गलियां देते हैं, कि क्यों मुझे बड़ा करके इतनी जिमेदारिया दे दी। अरे बच्चे होते तो कम से कम ऑफिस जाने कि टेंशन ना रहती, बॉस कि घुड़की ना सहनी पड़ती और जिन लड़कियों से हमे बाते करते देख लोग कहते है कि गुरू जिस लडकी पर तुम लईनमार रहे हो वोह बॉस का माल है। कम से कम ऐसा दिल्तोदू ट्रेलर तो ना सुनने को मिलता।
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