सौरभ जी ने कई बार अनुरोध किया कि कैंपस में कुछ लिखें, हालांकि मुझे लगता है कि शायद कैंपस से जुड़ी मेरी यादों में शायद किसी की खास दिलचस्पी न हो.
बहरहाल, जहां तक मैं पीछे पलटकर देखता हूं तो कैंपस में पहुंचते सबसे पहले जिस बात से मेरा पाला पड़ा वह थी पालिटिक्स... गोरखपुर का वह डिग्री कालेज दरअसल पालिटिक्स की पाठशाला ज्यादा थी. स्वभाव से अंतरमुखी होने के बावजूद हमेशा मेरी दोस्ती वाचाल किस्म के लोगों के होती आई. तो देखते-देखते कुछ इस तरह के दोस्तो से पाला पड़ गया जो दरअसल तकनीकी एजुकेशन हासिल कर रहे थे, मगर डिग्री के लिए वहां एडमीशन ले रखा था. वे स्टूडेंट पालीटिक्स में खासी दिलचस्पी रखते थे, कुछ ने तो बाकायदा इलाहाबाद और बनारस में इसकी जैसे ट्रेनिंग ही ले रखी थी. कुछ ही महीनों बाद चुनाव शुरू हो गए. हमारे साथियों ने एक कैंडीडेट खड़ा कर रखा था.
देखते-देखते कालेज कैंपस का सारा माहौल इलेक्शनमय हो गया. राजनीति का जादू इस कदर हमारे दिमाग पर छाया कि उसके सिवा कुछ और समझ में ही नहीं आता था. नारों से परिसर गूंजने लगे. घर-घर जाकर स्टूडेंट्स को अपने फेवर में तैयार करना और हाथ से पोस्टर तैयार करना. हमारे खिलाफ जो कैंडीडेट था वह बाहुबली था.. यानी धन भी और बल भी. इलेक्शन से तीन दिन पहले उसके चेहरे वाले पोस्टर से कालेज, बगल के गल्सॆ हास्टल की सारी दीवारें पट गईं. यहां तक कि बीच सड़क पर भी पोस्टर चिपका दिए गए थे. उसी दौरान सनी की फिल्म अर्जुन देखी, (वैसे वह पहले ही रिलीज हो चुकी थी) जहां चौगले (अनुपम खेर) के चेहरे वाले पोस्टर सारे शहर में चिपके दिखते हैं, तो लगता था कि हम भी कोई इसी तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बहरहाल हमारे कैंडीडेट को हारना था, वह हार गया. मगर हमारी मेहनत के वोट उसे मिले और राकी के स्टैलोन की तरह वह हारकर भी जीत गया. यह तो था ग्रेजुएशन के पहले साल का किस्सा.... अगले दो साल लंबी बैठकों और बहसों में कटे. मधुर स्मृतियों वाले कैंपस के दिन बाद में शुरू हुए. तब तक हम काफी मैच्योर हो चुके थे और बच्चन के शब्दों में स्वागत के ही साथ विदा की तैयारी होने लगी थी. दोस्ती गहरी होने से पहले ट्रेन की सीटी बज चुकी थी...
कभी मन में ख्याल आता है कि तमाम दोस्त जाने कहां होंगे, कैसे होंगे... क्या कभी खाली वक्त में बीत दिनों को याद करते होंगे..
मेरी तरह.......
दिनेश श्रीनेत
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