शनिवार, 23 जून 2007

सौरभ सुमन जी, कैंपस में कहां हैं जवानी के जोरदार किस्से???

अपने मित्र हैं सौरभ सुमन। दिल्ली से कानपुर और अब लखनऊ में हैं। बेहद शर्मीले, सजीले और नजाकत-नफासत पसंद। मुझे वो अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें एक अच्छे नागरिक के सभी गुण हैं। उनकी विनम्रता औरों की तरह कतई नकली नहीं है, पूरी तरह प्राकृतिक है। उनके चाहने के पीछे शायद एक ग्रंथि यही है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और जो भी हैं उन्हें संभाल कर रखने का दायित्व हम सभी पर है। खैर, कहना कुछ चाह रहा था, कह कुछ और रहा हूं। मुझे पता है, तारीफ सुन के सौरभ के दिमाग खराब नहीं होते।
तो मैं कह रहा था, सौरभ भाई ने एक ब्लाग बनाया हुआ है कैंपस। उसका लिंक मैंने भड़ास पर दे रखा है। कैंपस की दुकान चलाने के लिए सौरभ जी भरपूर कोशिश कर रहे हैं। हां, एक बात और, सौरभ जी कुछ किशन-कन्हैया की तरह हैं, उन्हें लड़कियां बेहद चाहती हैं और वो लड़कियों को। हालांकि ये गुण अपन सब में भी हैं लेकिन अपन लोग हैं बेहद आक्रामक। जल्दी दोस्ती होती है और उससे ही जल्दी टूट भी जाती है। खैर, बात कर रहा था सौरभ जी की। तो, सौरभ जी का कैंपस चल निकला है। उसमें कई लोग अपनी कैंपस की यादें निकाल रहे हैं। कुछ निकालने का नाटक कर रहे हैं और कुछ जबरन निकालने की कोशिश कर रहे हैं। भई, इतना प्रायोजित लेखन नहीं चलेगा। कैंपस के दिनों में हर आदमी ढेर सारा हरामीपना करता है और यह हरामीपना ही जवानी जिंदाबाद के नारे को बुलंद करती है। अगर इन हरामीपनों का जिक्र नहीं किया जाए तो कैसा कैंपस? मेरा मकसद कैंपस की आलोचना करना नहीं बल्कि उसका वास्तविक विजन बताना है। हो सकता हूं मैं गलत हूं क्योंकि दरअसल मैं अपने तरीके से सोच रहा हूं, सौरभ जी की सोच कुछ और होगी। लेकिन मुझे लगता है कि जब मैं कैंपस में लिखूंगा तो वो सारे कच्चे चिट्ठे खोलूंगा जिसे शायद कैंपस के दिनों में बिलकुल नहीं खोल सकता था। उसमें मास्टर को मारने से लेकर और ट्रेन में बिना टिकट पकड़े जाने पर उठक-बैठक करने तक का जिक्र होगा। इसी तरह पड़ोस की शादीशुदा लड़की पटाने के लिए कई महीने बर्बाद करने और फिर हाथ में कुछ न आने की भयंकर निराशा का भी जिक्र करूंगा। किस तरह नशे का गिरफ्त में आया, कैसे राजनीति में पहुंचा, कैसे थिएटर में शामिल हुआ, कैसे सेक्स को लेकर कुंठित होता गया, किस तरह प्रेम और यर्थाथ के बीच भयंकर गैप ने आदर्शवादी मन को कठोर बनाया.....

डार्क एरियाज के राज खोलने जरूरी हैं
भई, लिखना-लिखवाना है तो असल बातों पर ले आओ सबको क्योंकि आदमी बहुत कमीना टाइप प्राणी होता है, वो हमेशा अपनी मूर्ति पूजा कराना चाहता है जबकि सबके जीवन में इतने डार्क एरियाज होते हैं कि उसके राज जाहिर करने में सबकी फटती रहती है। हालांकि ऐसा लगता है कि राज जाहिर होने पर भयंकर हो जाएगा लेकिन हर आदमी के जीवन में ऐसे ही राज हैं और किसी के पास फुर्सत नहीं कि वो आपके राज को लेकर बैठ जाए और आपको फांसी पर लटका दे। मुझे याद है, जब पहली बार मुझे अपने जवान होने का अनुभव हुआ था, उस समय मैं हाई स्कूल में था, तब मैं कई दिन बेहद सदमें में रहा। किसी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती थी। लगता था धरती फट जाए और मैं समा जाऊं। यह क्या हो रहा है। सोचने समझने की हिम्मत जवाब दे गई थी। मुझे लगता रहा, यह सिर्फ मेरे साथ हुआ। पर बाद में जब थोड़ा रीयलिस्टिक हुआ तो पता चला, अबे सभी लोग थोड़ा इधर-उधर कम-ज्यादा कर ऐसा ही अनुभव करते हैं। ऐसा ही लड़कियों के साथ भी होता है। रियाज भाई के जीवन के डार्क एरियाज तो ऐसे-ऐसे हैं कि जब वो सुनाने लगेंगे तो कई लोग बेहोश हो जाएंगे। खुदा उन्हें चुप ही रखे। इसी तरह अपने सौरभ शर्मा मेरठ वाले ने बचपन से ज्योंही जवानी में कदम रखा तो रजिया गुंडों के जाल में फंस गई। वो लंबा किस्सा है जिसे सौरभ शर्मा जी कभी-कभी कान में फूंक मार कर सुनाते हैं और कहते हैं कि भाई साहब किसी से कहना नहीं। ...तो ऐसे ही ढेर सारे किस्से हैं जिसे हम किसी से कहना नहीं चाहते लेकिन उन्हें कह-लिख देने पर कहीं कुछ नहीं होता क्योंकि इतनी फास्ट दुनिया में लोग आपके किस्से को लेकर थोड़े ही बैठे रहेंगे।

बाकी बातें बाद में...कैंपस में इंतजार करूंगा किसी मास्टर को मारे जाने की घटना का, किसी लड़की को पटाने के लाइव चित्रण का, किसी की किताब चुराने, किसी की रैगिंग लेने की लाइव रिपोर्टिंग का...
सौरभ जी....भड़ास निकालिए, कैंपस में ही सही, लेकिन ओरीजनल अंदाज में। गुडी-गुडी लिखवाएंगे तो सब यूं ही थैंक्यू थैंक्यू लिखकर चले जाएंगे।

किसी को कुछ बुरा लगा हो तो वो एक बार जोर से बोले...जय भड़ास

यशवंत

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