एक हैं हमारे कुंदन जीं. मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं. प्रभात खबर में इनका साथ मिला, जो आज तक है. फिहाल वोह वहाँ बच्चों का पन्ना और फिल्म का पन्ना देख रहे हैं. हालांकि दोनो बिलकूल अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन कुंदन एक अच्छे मेनेजर भी हैं. बचेन उन्हें कुंदन भैया जे नाम से बुलाते हैं. उनकी कैम्पस की यादें।
सौरभ, अनेक ब्लॉग में जाता हूँ और कभी-कभी पढता भी हूँ, लेकिन तुम्हारा ब्लॉग कुछ हट कर लगा, क्योंकि इसमे जाने से काम्पुस के बेताक्लुफ दिनों कि सुनहरी याद या गयी. सच जीवन का सबसे रोमांचक और सुनहरा दिन कालेज के ही था. ढेरों सुनहरी यादें काम्पुस से जूरी है. एक रोमांचक वाकिये तुम्हे बताता हूँ. उस समय मैं बीआस्सी पार्ट-१ में था. हमारे कालेज में जूलोजी के कम थे, इस्लिया दो पग स्चोलुर को भेजा गया था. उस दिन मोर्निंग में पहला क्लास होने के बाद प्रक्टिकल था. क्लास छोर कर मैं पास में ही स्थित सुजाता सिनेमा हॉल चला गया (मुझे फिल्म देखने का बहुत शौक था, शायद उसी कारन आज फिल्मो पर लिखता हूँ) वहाँ मैं लाईंन में खरा हुआ, कुछ देर बाद मैंने देखा कि मेरे नए लक्चेर थीं. लड़के आगे खरे हैं. उन्हें वहाँ देख कर मैं सन् रह गया. उन्हें देख कर लगा श्हयद उनहोंने मुझे देख लिया हैं. उन्हें दीसे का टिकट लेते देख कर मैंने बल्कोनी का टिकट लिया, किसी तरह मैंने फिल्म देखी और सिनेमा ख़त्म होने के १० मिनट पहले ही मैं हॉल से बहार निकलने लगा, जैसे ही कॉरिडोर मैं पहुँचा सामने से जल्दी-जल्दी आते lएअक्चार भी दिखाई दिए, हम दोनो कि नजरें मिली, मैंने अपनी नजर नीचे kee और जल्दी से बहार निकल गया. दुसरे दिन क्लास में मुझे संकोच लग रह था, लेकिन सिर पहले कि तरह ही मुझे मुस्कुरा कर देखा. आज जब भी सुजाता हॉल जाता हूँ तो अनायास मुस्कुरा देता हूँ.आगे और बातें होंगी.
कुंदन कुमार चौधरी
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