सोमवार, 24 दिसंबर 2007
वो प्रभात खबर के दिन
शुक्रवार, 7 सितंबर 2007
कुछ आयाम मेरे भी होंगे
गुरुवार, 2 अगस्त 2007
सोमवार, 30 जुलाई 2007
सौरभ सुधर जाओ
मियां अगर तुमने अपने बारे में तमाम सूचनाएँ आज रात तक सार्वजानिक नहीं की तो में भडास पर सब उगल दूंगा। सब सूचनाएँ यानी आजकल कहॉ हो क्या कर रहे हो किसके साथ रह रहे हो क्यों रह रहे हो। सबसे जरूरी बात जीवित हो या नहीं अगर नहीं हो तो किसने क्या कब क्यों कहॉ कितना कर दिया
सचिन
शुक्रवार, 20 जुलाई 2007
देश में चाय कल्चर
मंगलवार, 17 जुलाई 2007
एक मौका कैम्पस को याद करने का
गुरुवार, 5 जुलाई 2007
ब्रेक के बाद
... पिछले दिनों कैंपस चर्चा पालीटिक्स तक पहुंच कर ठहर गई थी. डिग्री कालेज से निकलकर यूनीवर्सिटी पहुंचने के बीच का संक्रमण काल कुछ इस तरह का रहा कि दो नितांत विपरीत विचारधारा वाले लोगों के बीच उनको जानने, सुनने और समझने का मौका मिला. इसके अलावा आगे के चार-पांच साल थिएटर से जुड़े लोगों के बीच बीते. वह काफी अजब-गजब सा एक्सपीरिएंस था. मगर उनके बीच जाकर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, लोगों के बारे में, रिलेशनशिप्स के बारे में और साहित्य के बारे में. उन्हीं दिनों दोस्त बने, रिश्ते बने, लगाव हुआ और मनमुटाव भी. हमारे एक साथी थे, अभयराज, संघ से जुड़े, धीर-गंभीर, शांत, पैने तर्क देने वाले. उम्र में हमसे बड़े थे, दलितों की सामाजिक व्यवस्था पर शोध कर रहे थे, और उन्हीं की बस्ती में एक कमरा लेकर रहते थे, खाली समय में उनके बच्चों को पढ़ाते थे. उनके तर्क ने हमें यह मानने पर विवश कर दिया कि मार्क्सवादी विचारधारा दरअसल सामाजिक समरसता तक पहुंचती है और वह सोच तो पहले ही संघ के पास है. अभयराज से हमारी दोस्ती काफी लंबे समय तक चली.... फिर वे अचानक एक दिन गायब हो गए. उन्हीं दिनों वामपंथी संगठन के १५दिनी अखबार कैंपस के लिए फिल्म रिव्यू लिखी, इतनी पापुलर हुई कि उन्होंने उस पर एक लंबी बहस चला दी... उसके कारण मैं कई साल तक याद किया जाता रहा. उधर नाटक वालों के बीच एक्टिंग तो अपने बस की बात नहीं थी, मगर मैं प्रांप्टिंग करने लगा, यानी कि रिहर्सल के बीच डायलाग सही तरीके से बोलना जिसे अभिनेता दोहराते थे. वहीं एमए के दौरान कुछ और करीबी दोस्त बने, जिनसे नितांत घरेलू और आत्मीय किस्म के रिश्ते विकसित हुए... प्रशांत-बेहद सोशल, मगर उसकी मां बचपन मे गुजर गई थी, और कभी कड़ाहे के तेल से उसका चेहरा झुलस गया था, अंजू- मस्त, घरेलू, सुंदर और गुस्सैल, इन सबके बीच का वक्त मेरे लिए जाहिर तौर पर काफी उलझाव और दुविधा भरा था... उसके बारे में फिर कभी...
सोमवार, 2 जुलाई 2007
ये मानव रूप क्यों धरा ?
अखिर काम भी क्या ब्ला है? साला मनुष्य योनि में जनम लेना ही गुनाह है!
काश कोई परिंदा होते तो आराम से नीले गगन में उड़ते रहते , जब मन आता निचे उतरते नहीं तो नील गगन में कुलाचे मारते रहते ।
परिंदा ना सही कोई जानवर भी होता तो ऑफिस की किचकीच तो न सहना परता । आराम से जंगल में घुमते कोई काम का प्रेशर नहीं होता, जब मन करता सोते जब मन करता जागते
अब जब पिछले जनम के गुनाहों का फल मिल गया और मनुष्य योनि में जनम ले ही चुकें हैं तो कम से भाग कर कहॉ जाऊंगा । अब भले इस कम के कारन दोस्त सभी नाराज हैं कि उन्हें समय नहीं दे पाथा हूँ । कुछ खास इसलिया नाराज हैं कि कहीँ घुमाने नही ले जता हुईं , अब भगवन से यही मांगता हुईं की सारे कर्मो सॉरी कुकर्मों कि सजा यहीं दे दें और दया दिखाते हुए अगले जनम मोहे मानव रूप ना दीजे !
वैसे किसी कैंपस के दोस्त के पास मेरी समस्या का समाधान है तो कृपया मुझे जरुर बताएं!
शुक्रवार, 29 जून 2007
नेताजी के साथ कंपस का राउंड
गुरुवार, 28 जून 2007
कॉलेज में राजनीति
स्वागत के ही साथ विदा की तैयारी
बहरहाल, जहां तक मैं पीछे पलटकर देखता हूं तो कैंपस में पहुंचते सबसे पहले जिस बात से मेरा पाला पड़ा वह थी पालिटिक्स... गोरखपुर का वह डिग्री कालेज दरअसल पालिटिक्स की पाठशाला ज्यादा थी. स्वभाव से अंतरमुखी होने के बावजूद हमेशा मेरी दोस्ती वाचाल किस्म के लोगों के होती आई. तो देखते-देखते कुछ इस तरह के दोस्तो से पाला पड़ गया जो दरअसल तकनीकी एजुकेशन हासिल कर रहे थे, मगर डिग्री के लिए वहां एडमीशन ले रखा था. वे स्टूडेंट पालीटिक्स में खासी दिलचस्पी रखते थे, कुछ ने तो बाकायदा इलाहाबाद और बनारस में इसकी जैसे ट्रेनिंग ही ले रखी थी. कुछ ही महीनों बाद चुनाव शुरू हो गए. हमारे साथियों ने एक कैंडीडेट खड़ा कर रखा था.
देखते-देखते कालेज कैंपस का सारा माहौल इलेक्शनमय हो गया. राजनीति का जादू इस कदर हमारे दिमाग पर छाया कि उसके सिवा कुछ और समझ में ही नहीं आता था. नारों से परिसर गूंजने लगे. घर-घर जाकर स्टूडेंट्स को अपने फेवर में तैयार करना और हाथ से पोस्टर तैयार करना. हमारे खिलाफ जो कैंडीडेट था वह बाहुबली था.. यानी धन भी और बल भी. इलेक्शन से तीन दिन पहले उसके चेहरे वाले पोस्टर से कालेज, बगल के गल्सॆ हास्टल की सारी दीवारें पट गईं. यहां तक कि बीच सड़क पर भी पोस्टर चिपका दिए गए थे. उसी दौरान सनी की फिल्म अर्जुन देखी, (वैसे वह पहले ही रिलीज हो चुकी थी) जहां चौगले (अनुपम खेर) के चेहरे वाले पोस्टर सारे शहर में चिपके दिखते हैं, तो लगता था कि हम भी कोई इसी तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बहरहाल हमारे कैंडीडेट को हारना था, वह हार गया. मगर हमारी मेहनत के वोट उसे मिले और राकी के स्टैलोन की तरह वह हारकर भी जीत गया. यह तो था ग्रेजुएशन के पहले साल का किस्सा.... अगले दो साल लंबी बैठकों और बहसों में कटे. मधुर स्मृतियों वाले कैंपस के दिन बाद में शुरू हुए. तब तक हम काफी मैच्योर हो चुके थे और बच्चन के शब्दों में स्वागत के ही साथ विदा की तैयारी होने लगी थी. दोस्ती गहरी होने से पहले ट्रेन की सीटी बज चुकी थी...
कभी मन में ख्याल आता है कि तमाम दोस्त जाने कहां होंगे, कैसे होंगे... क्या कभी खाली वक्त में बीत दिनों को याद करते होंगे..
मेरी तरह.......
दिनेश श्रीनेत
हाँ ये वो ही कवि सचिन हैं
सचिन said...
सौरव भाई आप तो ऐसे ना थे । यार ये क्या बात हुई सिर्फ एड देकर चलते बने । कभी डायरी के कुछ पन्ने पढवा भी दो । ये कुछ उसी तरह हैं कि हलवाई कहे कि भाई बहुत बढिया मिठाई बनी हैं, शानदार आइटम हैं और भी तारीफ की जाये और जब सुनने वाले का मुह रसमलाई हो जाये तो दुकान बंद कर दे । अरे भईया पट खोलो और जरा चखाओ कि क्या माल हैं।
मंगलवार, 26 जून 2007
कुछ यादें हमारे साथ
बिना लड़कियों ke लाइफ पार्ट-2
अरविंद मिश्रा !!!!!!!!!!!
सोमवार, 25 जून 2007
लडकी बिना लाइफ सूनी -पार्ट -1
अरविंद मिश्रा
भैंस के ऊपर मैं , मेरे ऊपर बाईक
रविवार, 24 जून 2007
वो कालेज की मस्ती
Pushpa शर्मा
शनिवार, 23 जून 2007
बच्चों के कुंदन भैया
सौरभ, अनेक ब्लॉग में जाता हूँ और कभी-कभी पढता भी हूँ, लेकिन तुम्हारा ब्लॉग कुछ हट कर लगा, क्योंकि इसमे जाने से काम्पुस के बेताक्लुफ दिनों कि सुनहरी याद या गयी. सच जीवन का सबसे रोमांचक और सुनहरा दिन कालेज के ही था. ढेरों सुनहरी यादें काम्पुस से जूरी है. एक रोमांचक वाकिये तुम्हे बताता हूँ. उस समय मैं बीआस्सी पार्ट-१ में था. हमारे कालेज में जूलोजी के कम थे, इस्लिया दो पग स्चोलुर को भेजा गया था. उस दिन मोर्निंग में पहला क्लास होने के बाद प्रक्टिकल था. क्लास छोर कर मैं पास में ही स्थित सुजाता सिनेमा हॉल चला गया (मुझे फिल्म देखने का बहुत शौक था, शायद उसी कारन आज फिल्मो पर लिखता हूँ) वहाँ मैं लाईंन में खरा हुआ, कुछ देर बाद मैंने देखा कि मेरे नए लक्चेर थीं. लड़के आगे खरे हैं. उन्हें वहाँ देख कर मैं सन् रह गया. उन्हें देख कर लगा श्हयद उनहोंने मुझे देख लिया हैं. उन्हें दीसे का टिकट लेते देख कर मैंने बल्कोनी का टिकट लिया, किसी तरह मैंने फिल्म देखी और सिनेमा ख़त्म होने के १० मिनट पहले ही मैं हॉल से बहार निकलने लगा, जैसे ही कॉरिडोर मैं पहुँचा सामने से जल्दी-जल्दी आते lएअक्चार भी दिखाई दिए, हम दोनो कि नजरें मिली, मैंने अपनी नजर नीचे kee और जल्दी से बहार निकल गया. दुसरे दिन क्लास में मुझे संकोच लग रह था, लेकिन सिर पहले कि तरह ही मुझे मुस्कुरा कर देखा. आज जब भी सुजाता हॉल जाता हूँ तो अनायास मुस्कुरा देता हूँ.आगे और बातें होंगी.
कुंदन कुमार चौधरी
सौरभ सुमन जी, कैंपस में कहां हैं जवानी के जोरदार किस्से???
तो मैं कह रहा था, सौरभ भाई ने एक ब्लाग बनाया हुआ है कैंपस। उसका लिंक मैंने भड़ास पर दे रखा है। कैंपस की दुकान चलाने के लिए सौरभ जी भरपूर कोशिश कर रहे हैं। हां, एक बात और, सौरभ जी कुछ किशन-कन्हैया की तरह हैं, उन्हें लड़कियां बेहद चाहती हैं और वो लड़कियों को। हालांकि ये गुण अपन सब में भी हैं लेकिन अपन लोग हैं बेहद आक्रामक। जल्दी दोस्ती होती है और उससे ही जल्दी टूट भी जाती है। खैर, बात कर रहा था सौरभ जी की। तो, सौरभ जी का कैंपस चल निकला है। उसमें कई लोग अपनी कैंपस की यादें निकाल रहे हैं। कुछ निकालने का नाटक कर रहे हैं और कुछ जबरन निकालने की कोशिश कर रहे हैं। भई, इतना प्रायोजित लेखन नहीं चलेगा। कैंपस के दिनों में हर आदमी ढेर सारा हरामीपना करता है और यह हरामीपना ही जवानी जिंदाबाद के नारे को बुलंद करती है। अगर इन हरामीपनों का जिक्र नहीं किया जाए तो कैसा कैंपस? मेरा मकसद कैंपस की आलोचना करना नहीं बल्कि उसका वास्तविक विजन बताना है। हो सकता हूं मैं गलत हूं क्योंकि दरअसल मैं अपने तरीके से सोच रहा हूं, सौरभ जी की सोच कुछ और होगी। लेकिन मुझे लगता है कि जब मैं कैंपस में लिखूंगा तो वो सारे कच्चे चिट्ठे खोलूंगा जिसे शायद कैंपस के दिनों में बिलकुल नहीं खोल सकता था। उसमें मास्टर को मारने से लेकर और ट्रेन में बिना टिकट पकड़े जाने पर उठक-बैठक करने तक का जिक्र होगा। इसी तरह पड़ोस की शादीशुदा लड़की पटाने के लिए कई महीने बर्बाद करने और फिर हाथ में कुछ न आने की भयंकर निराशा का भी जिक्र करूंगा। किस तरह नशे का गिरफ्त में आया, कैसे राजनीति में पहुंचा, कैसे थिएटर में शामिल हुआ, कैसे सेक्स को लेकर कुंठित होता गया, किस तरह प्रेम और यर्थाथ के बीच भयंकर गैप ने आदर्शवादी मन को कठोर बनाया.....
डार्क एरियाज के राज खोलने जरूरी हैं
भई, लिखना-लिखवाना है तो असल बातों पर ले आओ सबको क्योंकि आदमी बहुत कमीना टाइप प्राणी होता है, वो हमेशा अपनी मूर्ति पूजा कराना चाहता है जबकि सबके जीवन में इतने डार्क एरियाज होते हैं कि उसके राज जाहिर करने में सबकी फटती रहती है। हालांकि ऐसा लगता है कि राज जाहिर होने पर भयंकर हो जाएगा लेकिन हर आदमी के जीवन में ऐसे ही राज हैं और किसी के पास फुर्सत नहीं कि वो आपके राज को लेकर बैठ जाए और आपको फांसी पर लटका दे। मुझे याद है, जब पहली बार मुझे अपने जवान होने का अनुभव हुआ था, उस समय मैं हाई स्कूल में था, तब मैं कई दिन बेहद सदमें में रहा। किसी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती थी। लगता था धरती फट जाए और मैं समा जाऊं। यह क्या हो रहा है। सोचने समझने की हिम्मत जवाब दे गई थी। मुझे लगता रहा, यह सिर्फ मेरे साथ हुआ। पर बाद में जब थोड़ा रीयलिस्टिक हुआ तो पता चला, अबे सभी लोग थोड़ा इधर-उधर कम-ज्यादा कर ऐसा ही अनुभव करते हैं। ऐसा ही लड़कियों के साथ भी होता है। रियाज भाई के जीवन के डार्क एरियाज तो ऐसे-ऐसे हैं कि जब वो सुनाने लगेंगे तो कई लोग बेहोश हो जाएंगे। खुदा उन्हें चुप ही रखे। इसी तरह अपने सौरभ शर्मा मेरठ वाले ने बचपन से ज्योंही जवानी में कदम रखा तो रजिया गुंडों के जाल में फंस गई। वो लंबा किस्सा है जिसे सौरभ शर्मा जी कभी-कभी कान में फूंक मार कर सुनाते हैं और कहते हैं कि भाई साहब किसी से कहना नहीं। ...तो ऐसे ही ढेर सारे किस्से हैं जिसे हम किसी से कहना नहीं चाहते लेकिन उन्हें कह-लिख देने पर कहीं कुछ नहीं होता क्योंकि इतनी फास्ट दुनिया में लोग आपके किस्से को लेकर थोड़े ही बैठे रहेंगे।
बाकी बातें बाद में...कैंपस में इंतजार करूंगा किसी मास्टर को मारे जाने की घटना का, किसी लड़की को पटाने के लाइव चित्रण का, किसी की किताब चुराने, किसी की रैगिंग लेने की लाइव रिपोर्टिंग का...
सौरभ जी....भड़ास निकालिए, कैंपस में ही सही, लेकिन ओरीजनल अंदाज में। गुडी-गुडी लिखवाएंगे तो सब यूं ही थैंक्यू थैंक्यू लिखकर चले जाएंगे।
किसी को कुछ बुरा लगा हो तो वो एक बार जोर से बोले...जय भड़ास
यशवंत
यादे याद आती है
कम्पुस के दिनों को याद करते ही मन महकने लगता है। ऍक एक कर हर बात याद
आती है। सावन कि पहली बूंदो के तन पर गिरने का सा एहसास था वो। ढ़ेर सरे सपनो कि
दुनिया, ऐसा लगता था कि पंख लग गए हो। वो पहली बार क्लास बुंक करके मोवी देखने जाना।
हाल मे ख़ूब हल्ला मचाना। हमारा गिर्ल्स कोलेज था, अगर कोई लड़का आ गया तो उसकी
खैर नही। एक मजेदार वाकया बताती हूँ। हमारा १८ लडकियो का ग्रुप था जो गैंग कहा jata था।
एक बार एक लड़के के पीछे गैंग कि ६ लडकिया दीवानी थी। फिर दिन तय हो गए किस दिन कौन
उसके बारे मे बात करेगा। बहुत मजा आता था। उस बेचारे लड़के को ये सब तब पता चला जब
उसकी शादी हुई। वो इन दिनों लेफिनेंत कर्नल है।
ऐसी बहुत यादे है। बाक़ी फिर कभी।
शुभकामनाये
pratibha
बुधवार, 20 जून 2007
नई जीन्स और नई गिटार
अमूमन मैं पीछे मुड़कर देखना पसंद नहीं करता फिर भी सौरव से वादा किया था सो आप लोगों को अपने कैंपस के दिनों के बारे मैं बताता हूँ । मेरे कैंपस के दिन यूँ कोई बहुत खास नहीं थे । इनमें कुछ दोस्त थे चंद सिगरेटें थीं और था एक बेहद आवारा मिजाज़ दिल । उन दिनों मेरे दिन की शुरुआत कोई 11-12 बजे होती थी । मैं रूम पर अकेला होता था चाय पीकर कोलेज की और खरामा खरामा बढता । रास्ते मैं कोई मिल गया तो गंतव्य बदल भी जाता था । सबसे पहले कैंटीन पहुँचता था और कोई जाना पहचाना चेहरा दिखाई दे गया तो उसी टेबल को अपना निशाना बनाता । यह वो दौर था जब मैं एक दिन मैं कम से कम 2 पैकेट सिगरेट पी जाता था । दोस्तो से गप्पबाजी और विवि की राजनीति कई दाव पेंच तय करते हुये 7-8 बज जाते थे । इसके बाद भारत भवन या रवींद्र भवन की और रुख करते और भोपाल के साहित्यिक सांस्कृतिक माहौल मैं रमे रहते थे । दरअसल उन दिनों यही वह दुनिया थी जो हम लोगों को राह दिखाती थी । विवि के सांस्कृतिक माहौल को बनाए रखने की ताकत भी यहीं से मिलती थी । हबीब तनवीर, राजेश जोशी, विजय बहादुर सिंह, कमला प्रसाद, नवल शुक्ल, बनाफर चंद्र, इरफान सौरव से लेकर रामशरण जोशी तक फैले इस माहौल में हमने अपने रास्ते अख्तियार किये और अपनी पूरी लापरवाही के साथ कैंपस में पढ़ाई की । आज इतना ही ।
आगे पढें : नाटकों का संसार - पूरी हकीकत पूरा फ़साना
मंगलवार, 19 जून 2007
कैसे थें सचिन भाई कैम्पस के दिनों में
सचिन said...
सौरव भाई कैंपस की यादों को हिलोरने के लिए धन्यवाद । दरअसल बहुत साफ कहूं तो मुझे कभी आप पर विश्वास नहीं हुआ । कारण यह है कि आप मेरे बारे में बहुत बड़ा चडाकर बोलते हैं जिसका में हक़दार ही नहीं मुझे आप वो बना देते हैं । मैंने बहुत सकुचते हुये कवितायेँ पोस्ट की थी नई इबारतें पर । दरअसल कवितायेँ मेरी निजी दिक्कतों का फलसफा ही ज्यादा हैं । इसमें आपके उस सवाल का भी जवाब निहित है कि भडास और नई इबारतें पर में कैसे अलग अलग हूँ । मुझे लगता है कि भीतर से हर आदमी के अन्दर नई इबारतें होतीं है बिल्कुल साफ सफ्फाक और निश्छल और बाहर से हर आदमी दिखना चाहता है एक भडासी । और बातें किसी पोस्ट पर होंगी । फिलहाल अलविदा
रविवार, 17 जून 2007
वो छोटी-छोटी खुशियाँ
शुक्रवार, 15 जून 2007
रैगिंग के जरिये bhadas
अरविंद मिश्रा
गुरुवार, 14 जून 2007
वैसे तो आमने- सामने आपसे ज्यादा बातें होती नहीं, उम्मीद है कि ब्लोग पर बतकही चलती रहेगी। आपने इसके बहाने पुराने दिनों की याद ताजा कर दी। हालांकि मैं तो कैम्पस का टाइम लगभग भूल ही चूका था, पर यहाँ देखा तो काफी लोग यहाँ पर पुराने दिनों की यादों को सहेज रहे हैं। कैम्पस के बाक़ी मित्रों से भी अनुरोध है कि मुझसे अपना संवाद बनाए रखें।
दिनेश श्रीनेत
बुधवार, 13 जून 2007
बच्चे थे तो मौज थी
स्कूल के दिन ज्यादा याद आते हैं
सोमवार, 11 जून 2007
भाई, सौरभ जी, मैं आ गया, लिखूं क्या???
बाकी बाद में
यशवंत